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पुरुषार्थसिद्धयुपाय 118. The Masters (Āchāryas), well versed in the Jaina doctrine, call the renunciation of both kinds of possessions (internal and external) as ahimsā, and the appropriation of both kinds as himsā.
हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरङ्गसङ्गेषु । बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूर्च्छव हिंसात्वम् ॥
(119)
अन्वयार्थ - (अंतरङ्गसङ्गेषु ) अन्तरंग परिग्रहों में (हिंसापर्यायत्वात् ) हिंसा के पर्याय होने से ( हिंसा सिद्धा) हिंसा सिद्ध है (बहिरङ्गेषु तु) बहिरंग परिग्रहों में तो (नियतं) नियम से (मर्छा एव हिंसात्वम् प्रयातु) मूर्छा ही हिंसापने को सिद्ध करती है।
119. Internal possessions are proved to be hiņsā as these are just another name for himsā , and external possessions, due to the passion of attachment in them, certainly result into himsā.
एवं न विशेषः स्यादुन्दररिपुहरिणशावकादीनाम् । नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्छाविशेषेण ॥
(120)
अन्वयार्थ - ( एवं) इस प्रकार अर्थात् यदि बहिरंग परिग्रहों में मह्यं का उत्पन्न होना ही हिंसा है तो (उन्दररिपुहरिणशावकादीनां) बिल्ली और हरिण के बच्चे आदि के विषय में (न विशेषः स्यात् ) कुछ विशेष नहीं होगा। ( एवं न) उत्तर में कहते हैं कि ऐसा नहीं है ( तेषां मूर्छाविशेषण) उनके मूर्छा विशेष से (विशेषः भवति ) विशेष है।
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