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________________ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय मूर्छालक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य । सग्रन्थो मूर्छावान् विनाऽपि किल शेषसङ्गेभ्यः ॥ (112) अन्वयार्थ - (मूर्छालक्षणकरणात् ) परिग्रह का मूर्छा लक्षण करने से (परिग्रहत्वस्य) दोनों प्रकार - बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग परिग्रह की (व्याप्तिः सुघटा) व्याप्ति अच्छी तरह घट जाती है (शेषसङ्केभ्यः) बाकी के सब परिग्रहों से (विना अपि) रहित भी (किल) निश्चय करके (मूर्छावान् ) मूर्छा वाला (सग्रन्थः) परिग्रह वाला है। 112. Characterization of attachment to possessions (parigraha) as infatuation is all-inclusive. Therefore, a person who has renounced all possessions, but under infatuation, certainly is 'with possession'. यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः । भवति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूर्छानिमित्तत्वम् ॥ (113) अन्वयार्थ - (यदि एवं) यदि इस प्रकार है अर्थात् परिग्रह का लक्षण मूर्छा ही किया जाता है (तदा) उस अवस्था में (खलु कोऽपि बहिरङ्गः परिग्रहो न भवति) निश्चय से कोई भी बहिरङ्ग परिग्रह, परिग्रह नहीं ठहरता है, इस आशंका के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि ( भवति) बाह्य परिग्रह भी परिग्रह कहलाता है (यतः) क्योंकि (असौ ) यह बाह्य परिग्रह (नितरां) सदा (मूर्छानिमित्तत्वम्) मर्छा का निमित्त कारण होने से अर्थात् यह मेरा है ऐसा ममत्व-परिणाम बाह्य परिग्रह में होता है इसलिये वह भी मूर्छा के निमित्तपने को (धत्ते) धारण करता है। 113. The assertion that infatuation is attachment to possessions (parigraha) would mean that there can be no external 74
SR No.009868
Book TitlePurushartha Siddhupaya
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year2012
Total Pages210
LanguageSanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size8 MB
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