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देते हुए पा सकते हैं। अग्नि में जलाने की शक्ति ईश्वर की इच्छा से नहीं है, क्योंकि हम ऐसी अग्नि की तो कल्पना ही नहीं कर सकते, जिसमें जलाने की शक्ति न हो।
किन्तु इन सब युक्तियों का यह अर्थ नहीं है कि जैन सिद्धान्त ने ईश्वर को नहीं माना। उसने ईश्वर को एक अनादिसिद्ध जगत्स्रष्टा चाहे नहीं माना, पर एक साध्य और मनुष्य के जीवन के चरम और सर्वोत्तम विकास के रूप में अवश्य स्वीकार किया है। क्रिया-प्रतिक्रिया के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर मनुष्य अपने कर्मों का फल स्वयं पाता है । इसके लिए उसे किसी न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है । अतः वे सिद्ध जो अनन्त ज्ञान, शक्ति, दर्शन और सुख से सम्पन्न हैं, हम जैसे ही प्राणी थे, संसार में भटक रहे थे, उनमें भी अज्ञान था, कषाय था पर उन्होंने उस अज्ञान और कषाय पर विजय पायी और सर्वदा के लिए विजय पायी। इस प्रकार वे एक ऐसी स्थिति में पहुँच गये जहाँ उन्हें राग और द्वेष नहीं सताते । _वे सिद्ध हमारे लिए आलोक-स्तम्भ हैं, आदर्श हैं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि जीवन में बड़ी से बड़ी सम्भावना गुप्त रूप से निहित है जो पुरुषार्थ द्वारा अभिव्यक्त हो सकती है । इन सिद्धों का ध्यान वस्तुतः अपने लक्ष्य का ध्यान है। ये सिद्ध परमेष्ठी हैं, परमेश्वर हैं। वे एक नहीं हैं। और न वे अकेले परमेश्वर हैं। उनके साथ साथ चार परमेष्ठी और हैं-अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु । ये सब हमारे जीवन मार्ग के आलोक स्तम्भ हैं। णमोकार मन्त्र में सर्वप्रथम अरिहन्तों को नमस्कार किया गया। तदनन्तर सिद्धों को फिर आचार्य उपाध्याय और साधुओं को। यह णमोकार मन्त्र जैन धर्म की भक्ति परम्परा का अनादिनिधन मन्त्र है। सिद्धों की अपेक्षा अरिहन्त हमारे अधिक निकट हैं क्योंकि उनका शरीर है और वे संसार में दृश्य रूप में रहते हैं। उनका उपदेश हमारे साक्षात् कल्याण का कारण है, अतः प्रथम नमस्कार उन्हें किया गया। उससे पूर्व जो उस सफलता को प्राप्त कर चुके हैं, उन सिद्धों को नमस्कार उनके अनन्तर किया गया और फिर आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार किया गया जो उस लक्ष्य तक पहुँचे तो नहीं पर उस पथ के पथिक अवश्य हैं। इस प्रकार जैन धर्म व्यक्ति की उपासना नहीं करता, सिद्धान्त की उपासना करता है और परावलम्बन को निकृष्ट समझता है चाहे वह परावलम्बन ईश्वर का ही क्यों न हो।