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हैं। यह एक दृष्टि से कहा जा रहा है। दूसरी दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि दोनों ही पक्ष वस्तुतः असत्य पर टिके हुए होते हैं। पर इस बात को वे दोनों पक्ष कभी भी नहीं समझ पाते और यदि एक तीसरा गुट इस तथ्य को समझ लेता है, तो वह एक तीसरा सत्य बन जाता है। किन्तु वह सत्य भी अभिमान की सीमा में बन्धकर असत्य बन जाता है। और तब वह उन दोनों गुटों से लड़ने के लिये तैयार हो जाता है। इस प्रकार गुट पर गुट बनते चले जाते हैं। सत्य के खण्ड खण्ड हो जाते हैं और सत्य के साथ-साथ मानवता के भी खण्ड-खण्ड हो जाते हैं और सत्य के साथ-साथ मानवता के भी खण्ड खण्ड हो जाते है और सम्पूर्ण सत्य, सम्पूर्ण मानवता अोझल हो जाती है। प्राचार्यों ने कहा है कि सत्य का अनन्तवां भाग जाना जा सकता है और जो अनन्तवां भाग जाना जा सकता है, उसका भी एक अनन्तवां भाग शास्त्रों में लिखा है पर हम शास्त्रों को पूरा पढ़ भी नहीं पाते, उसका एक थोड़ा-सा ही भाग पढ़कर यह मान लेते हैं कि हमने सम्पूर्ण सत्य को जान लिया, उन शास्त्रों के वाक्यों को बार-बार उद्धृत करते हैं और उससे सत्य की पुष्टि करने का दावा करते हैं। पर पुष्टि केवल हमारे अभिमान की होती है, हमारे इस ज्ञानाभिमान की कि हमें शास्त्र आता है। पर इससे न व्यक्ति का कल्याण होता है न मानवता का और न सत्य की उपलब्धि होती है। जैन धर्म ने यह कहा कि सब सत्य सापेक्ष हैं, अनेकांतिक हैं । किन्तु यह स्याद्वाद भी एक वाद बन गया, एक सम्प्रदाय बन गया। और यद्यपि प्राचीन आचार्यों ने अनेकान्तवाद को भी अनेकान्त रूप माना है किन्तु हमें अनेकान्त का ही एकान्तिक आग्रह हो गया।
१. अनेकान्तोऽप्यनेकान्त:-स्व