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Shri Ashtapad Maha Tirth
इसका क्या प्रयोजन है? यह स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने लिखा है (मोक्षमार्ग विवक्षया अवतीर्णम्) अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश देने के लिये ऋषभदेव ने अवतार लिया था। संसार की लीला दिखाने के लिए नहीं। भगवान् ऋषभदेव ने जिस ज्ञानधारा का उपदेश दिया, उसे उपनिषद में परा-विद्या अर्थात् श्रेष्ठ विद्या माना गया है।"
हिन्दुओं के प्रसिद्ध योगशास्त्र ग्रन्थ हठयोग प्रदीपिका में मंगलाचरण करते हुए लेखक ने भगवान् आदिनाथ की स्तुति की है
"श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोग विद्या।
विभ्राजते प्रोन्नतराज योग, मारोढुमिच्छोरधिरोहिणीव ।।" श्री आदिनाथ को नमस्कार हो। जिन्होंने उस हठयोग विद्या का, सर्वप्रथम उपदेश दिया, जोकि बहुत ऊँचे, राजयोग पर आरोहण करने के लिये, नसैनी के समान है।
-वीरज्ञानोदय ग्रन्थमाला तीर्थङ्कर ऋषभदेव योग प्रवर्तक थे। कैलाश (अष्टापद) पर उन्होंने जो साधना की वे अत्यन्त रोमांचक होने के साथ साथ अनेक पद्धतियों की आविर्भावक भी थी। वे प्रथम योगी बन गये। उनके माता पिता का नाम मेरु और नाभि भी योग से सम्बद्ध है अर्थात नाभि और मेरु से उत्पन्न होने वाला ऋषभ । जो नाभि और मेरु से उत्पन्न होगा; वह विशेष ऊर्जा सम्पन्न होगा। यह ऊर्जा चेतना की ही हो सकती है। अतः ऋषभ श्रेष्ठ है। श्रीमद् भागवत में ऋषभदेव की योगचर्या की विस्तृत चर्चा की गयी है।
-मुनि महेन्द्र कुमारजी वी. जी. नैय्यर ने अपने ग्रन्थ में लिखा है - "द्रविड़ श्रमण धर्म के अनुयायी थे। श्रमणधर्म का उपदेश ऋषभदेव ने दिया था। वैदिक आर्यों ने, उन्हें जैनों का प्रथम तीर्थंकर माना है। मनु ने द्रविड़ों को व्रात्य कहा है, क्योंकि वे जैनधर्मानुयायी थे।" -दि इन्डस वैली सिविलाइजेशन एण्ड ऋषभ - पृ.२
शतपथ ब्राह्मण में लिखा है व्रतधारी होने के कारण (अरिहंत) अर्हत् के उपासकों को व्रात्य कहते थे। वे प्रत्येक विद्याओं के जानकार होने के कारण द्राविड़ नाम से प्रसिद्ध थे। ये बड़े बलिष्ठ, धर्मनिष्ठ, दयालु और अहिंसा धर्म को मानने वाले थे। ये अपने इष्टदेव को वृत्र (सब ओर से घेरकर रहने वाला सर्वज्ञ) अहिन् सर्व आदरणीय परमेष्ठी, परमसिद्धी के मालिक, जिन, संसार के विजेता, शिव आनंदपूर्ण, ईश्वर, महिमापूर्ण आदि नामों से पुकारते थे। ये आत्मशुद्धि के लिये अहिंसा, संयम और तपोनिष्ठ मार्ग के अनुयायी, तथा ये केशी (जटाधारी) शिश्नदेव (नग्न साधुओं) के उपासक थे।
-अनेकान्त वर्ष १२, किरण ११, पृ. ३३५ पद्मपुराण में लिखा है-इस आर्हत धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव कहे जाते हैं :
"आर्हतं सर्वैमैतच्च मुक्ति द्वारम् संवृतम। धर्मात् विभुक्ते रहोयं नः तस्मादपरः परः।"
__ -पर्व १३/३५० पद्मपुराण आर्यमंजुश्री मूल काव्य में भारत के प्राचीनतम सम्राटों में नाभिराय के पौत्र सम्राट भरत को बताया गया है। उसमें लिखा है-नाभि के पुत्र भगवान् ऋषभदेव ने हिमालय में तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी, और वे जैनधर्म के आद्यदेव थे
"प्रजापते सुतो नाभिः तस्यापि आगमुच्यति। नाभिनो ऋषभपुत्रो वै सिद्धकर्म दृढव्रतः। -26 155 -
Adinath Rishabhdev and Ashtapad