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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth स्वाहा। ॐ स्वस्तिनः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्कोअरिष्टनेमिः स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु। दीर्घायुस्त्वायवलायुर्वाशुभजातायु ॐ रक्षरक्षअरिष्टनेमि स्वाहा वामदेव सांत्यर्थ मनुविधीयते सोऽस्माक अरिष्टनेमि स्वाहा।" - यजुर्वेद अर्थ- ऋषभदेव पवित्र को और इन्द्ररूपी अध्वर को यज्ञों में नग्न को, पशु वैरी के जीतने वाले इंद्र को आहुति देता हूँ। रक्षा करने वाले परम ऐश्वर्ययुक्त और अमृत और सुगत सुपार्श्व भगवान् जिस ऐसे पुरुहुत (इन्द्र) को ऋषभदेव तथा वर्द्धमान कहते हैं उसे हवि देता हूँ। वृद्धश्रवा (बहुत धनवाला) इन्द्र कल्याण करे, और विश्ववेदा सूर्य हमें कल्याण करे, तथा अरिष्टनेमि हमें कल्याण करे और बृहस्पति हमारा कल्याण करे। (यजुर्वेद अध्याय २५ मं. १९) दीर्घायु को और बल को और शुभ मंगल को दे । और हे अरिष्टनेमि महाराज ! हमारी रक्षा करे वामदेव शान्ति के लिये जिसे हम विधान करते हैं वह हमारा अरिष्टनेमि है, उसे हवि देते हैं। अथर्ववेद में ऋषभ को भवसागर से पार उतारने वाला कहकर उसकी स्तुति की गई है "अंहो मुचं वृषभं यज्ञियानां विराजन्तं प्रथममध्वरणाम् । अपां न पातमश्विना हुवेधिय इन्द्रियेण तमिन्द्रियं ।" पापों से मुक्त पूज्य देवताओं और सर्वश्रेष्ठ आत्म साधकों में सर्वप्रथम भवसागर के पोतकों में हृदय से पुकारता हूँ। हे सहचर बन्धुओ ! उस सर्वश्रेष्ठ वृषभ को तुम पूर्ण श्रद्धा द्वारा उसके आत्मबल और उसके तेज को धारण करो क्योंकि वह भवसमुद्र से पार उतारेगा। -दत्तभोज/अथर्ववेद १९.४२.४ ऋग्वेद में भगवान ऋषभदेव को अनन्तचतुष्ट्य का धारी प्रतिपादित किया है चत्वारी श्रृंगात्रयो अस्य पादा, दै शीर्ष सप्त हस्तासौ अस्य त्रिधा बद्धो वृषभो शेरणीति, महादेवी मत्यनिविवेद। - ऋग्वेद ४.५८.३ अर्थ- ऋषभदेव के अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप चार शृंग हैं। उनके सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूपी पद (चरण) हैं। उच्चासन अर्थात् केवल ज्ञान एवं मुक्ति रूपी दो शीर्ष हैं। सप्तभंगी रूप सात हाथ हैं। मन वचन कार्यरूपी तीन योगों से बंधकर जीव संसारी हो जाता है और इन तीनों का निरोधकर तपस्या कर यह आत्मा परमात्मा बन जाता है। आगे पुनः स्तुति करते हुए कहते हैं एवं वभ्रो वृषभ चेकिस्तान यथा हेक न हषीषन हन्ति।' हे शुद्ध, दीप्तिमान सर्वज्ञ वृषभ ! हमारे ऊपर ऐसी कृपा करो कि हम जल्दी नष्ट न हों और न किसी को नष्ट करें। __ कल्याण के संत अंक में लिखा है- 'परम भगवत भक्त राजर्षि भरत; भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे। उन्होंने पिता की आज्ञा से राज्यभार स्वीकार किया था। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम भारत वर्ष या भरत खण्ड कहलाया।' -कल्याण का संत अंक, प्रथम खण्ड वर्ष १२, पृ.२७६ स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती ने (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) अपने ग्रन्थ की टीका में लिखा है- “ऋषभदेव को पुराणों में भगवान् वासुदेव का अंश कहा है, और ऋषभदेव का अवतार माना है Adinath Rishabhdev and Ashtapad 154
SR No.009856
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages72
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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