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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth तस्यापि मणिचरो यक्षः सिद्धो हेमवते गिरौ । ऋषभस्य भरतः पुत्रः सो पि मज्जतात् सदा जपेत्।" इसी ग्रन्थ में एक स्थान में कपिल का भी उल्लेख है। 'कपिल मुनिनाम ऋषि वरो, निर्ग्रन्थ तीर्थंकर ऋषभ निर्ग्रन्थ रूपि।' जैन शास्त्रों में ऋषभदेव का वर्णन बहुत कुछ वेदों और पुराणों के अनुसार ही मिलता है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि जिन ऋषभदेव की महिमा वेदान्तियों के ग्रन्थों में वर्णन है, जैनी भी उन्हीं ऋषभदेव को पूजते हैं, दूसरे को नहीं। "युगेयुगे महापुण्यं दृश्यते द्वारिका पुरी। अवतीर्णो हरियंत्र प्रभासशशिभूषणः ।। रेवताद्रौजिनो नेमियुगादिर्विमलाचले । ऋषीणामश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ।।" -श्री महाभारत अर्थ- युग-युग में द्वारिकापुरी महा क्षेत्र है, जिसमें हरि का अवतार हुआ है जो प्रभास क्षेत्र में चन्द्रमा की तरह शोभित है। और गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ और कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर आदिनाथ अर्थात् ऋषभदेव हुए हैं। ये क्षेत्र ऋषियों के आश्रम होने से मुक्तिमार्ग के कारण हैं। श्री नेमिनाथ स्वामी भी जैनियों के २२वें तीर्थंकर हैं और श्री ऋषभनाथ को आदिनाथ भी कहते हैं, क्योंकि वे इस युग के आदि तीर्थंकर हैं। "दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः। नीतित्रयस्य कर्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः।। सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वदेवनमस्कृतः। छत्रत्रयीभिरापूज्यो मुक्तिमार्गमसौ वदन् ।। आदित्यप्रमुखाः सर्वे बद्धांजलिभिरीशितुः। ध्यायंति भावतो नित्यं यदंघ्रियुगनीरजम् ।। कैलासविमले रभ्ये ऋषभोयं जिनेश्वरः। चकार स्वावतारं यो सर्वः सर्वगतः शिवः।।" -श्री नागपुराण अर्थ- वीर पुरुषों को मार्ग दिखाते हुए सुर असुर जिनको नमस्कार करते हैं जो तीन प्रकार की नीति के बनाने वाले हैं, वह युग के आदि में प्रथम जिन अर्थात् आदिनाथ भगवान् हुए, सर्वज्ञ (सबको जानने वाले), सबको देखने वाले, सर्व देवों के पूजनीय, छत्रत्रय करके पूज्य, मोक्षमार्ग का व्याख्यान कहते हुए, सूर्य को प्रमुख रखकर सब देवता सदा हाथ जोड़कर भाव सहित जिसके चरणकमल का ध्यान करते हुए ऐसे ऋषभ जिनेश्वर निर्मल कैलाश पर्वत पर अवतार धारण करते हुए जो सर्वव्यापी हैं और कल्याणरूप हैं ।। 'अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्धवेत् ।।' -शिवपुराण अर्थ- अड़सठ (६८) तीर्थों की यात्रा करने का जो फल है, उतना फल श्री आदिनाथ के स्मरण करने ही से होता है। Adinath Rishabhdev and Ashtapad -86 156
SR No.009856
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages72
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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