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औपशमिकादि भव्यत्वानां च।।३।।
और मुक्त जीव के औपशमिकादि भावों का तथा भव्यत्व भाव का भी अभाव हो जाता है।
अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः।।४।।
केवल सम्यक्तव, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन चार भावों के सिवाय अन्य भावों का मुक्त जीव के अभाव होता है।
तदनन्तरमूध्व गच्छत्यालोकान्तात् ।।५।।
समस्त कर्मों के नष्ट हो जाने के पश्चात् मुक्त जीव लोक के अंतभाग तक ऊपर को जाकर सिद्धशिला में विराजमान हो जाता है।
पूर्वप्रयोगादसंगत्वावंधच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ।।६।।
१ पूर्व प्रयोग से, २ असंग होने से, ३ कर्म बंध के नष्ट हो जाने से और ४ सिद्ध गति का ऐसा ही परिणमन होने से मुक्तजीव का ऊर्ध्व गमन होता है।
आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालांबुवदेरंडबीजवदग्निशिखावच्च ।।७।।
मुक्तजीव के उर्द्धगमन में पूर्व सूत्र में जो हेतु बताये गये हैं उनको दृष्टान्त द्वारा बताया जाता है पूर्व प्रयोग से कुम्हार के घुमाए हुए चाक के समान, असंग होने से मिट्टी के लेप रहित तूंवी के समान, कर्मबंध के नष्ट होने से एरंड बीज के समान, स्वभाव से अग्निशिखा के समान, मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमन होता है।
धर्मास्तिकायाभावात् ।।८।।