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________________ अथवा संवेग और वैराग्य के लिए जगत और काय के स्वभाव का भी बारम्बार चितवन करना चाहिए। प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरापणं हिंसा।।३।। प्रमाद के योग से भाव प्राण और द्रव्य प्राण का वियोग करना हिंसा है। असदभिधानमनृतम्।।४॥ जीवों के दु:ख देनेवाले मिथ्या वचन कहना सो असत्य है। अदत्तादानं स्तेयम्।१५।। दूसरों के धन धान्यादि पदार्थों का उसके दिये बिना ग्रहण करना सो चोरी है। मैथुनमब्रह्म।१६॥ मैथुन अर्थात् विषय सेवन सो कुशील है। मर्छा परिग्रहः।७।। चेतन अचेतन रूप परिग्रह में ममत्व रूप परिणाम होना परिग्रह निःशल्यो व्रती।।१८।। जो व्रती शल्य (माया, मिथ्यात्व और निदान) रहित है वही व्रती है। अगार्यनगारश्च।।९।। व्रती, गृहस्थी और मुनि के भेद से दो प्रकार के होते हैं। अणुव्रतोऽगारी।।२०॥
SR No.009849
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages63
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size1 MB
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