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दान
मैं जब गाँव में घर-घर भीख माँगने निकला हुआ था, तब तेरा स्वर्णरथ एक सुनहले सपने की तरह दूर दिखाई दिया । मैं ताज्जुब करने लगा कि यह सम्राटोंका महिमामय सम्राट् कौन है ? मुझे उम्मीद बंधी कि मेरे बुरे दिनोंका अब अन्त होनेवाला है, मैं बिना माँगे दानकी प्रतीक्षा में खड़ा रहा — उस ऐश्वर्य के लिए भी जो धूलमें सब तरफ़ बिखरा पड़ा
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है । जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ तेरा रथ आकर रुका, तेरी नजर मुझपर पड़ी और तू मुसकराते हुए नीचे उतर आया, मैंने अनुभव किया कि मेरे जीवनका सौभाग्य आखिर लौट आया है । तब यकायक तूने अपना दायाँ हाथ बाहर निकालकर मुझसे कहा, 'क्या दोगे ?'
ओफ़ ! यह कितना बड़ा मज़ाक था । एक भिखारीके आगे अपने हाथ फैलाना ! मैं बड़ी उलझन में पड़ गया, मैने तब अपने झोलेमेसे आहिस्ता से अन्नका एक छोटा दाना निकाला और तुझे दे दिया । लेकिन मेरे आश्चर्यका कोई ठिकाना न रहा, जब सूरज-छिपे मैने ज़मीनपर अपने झोलेको खाली किया तो एक सोनेका दाना उसपर आ गिरा, मैं जार-ज़ार रोता हुआ सोचने लगा कि काश, मैने अपना सर्वस्व तुझे दे डाला होता !
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
भौतिक सम्पत्ति
राम जब सीताको रावणके चंगुल से छुड़ाकर अयोध्या आये, तो उन्होने अपने सब सहयोगियोंको पुरस्कृत किया, मगर हनुमान के अहसानोंका ऋणी ही रहना मुनासिब समझा ।
कुछ
सीता बोली -- ' आपने सबको दिया, पर हनुमानको तो ही नहीं ।'
सन्त-विनोद
दिया
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