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गुरुने समझाया-'घृणा पापसे करना चाहिए, पापीसे नहीं। धर्म पतित-पावन है। वह पापी-से-पापीका उद्धार कर सकता है। वेश्या भी अपने पापोंका प्रायश्चित्त कर तपोबलसे पवित्र बन सकती है। फिर यह तो निर्दोष बालक है। अगर पाप किया भी है तो इसकी माँने किया है, उसका दण्ड इसे क्यों मिले ?'
सेवा हज़रत मुहम्मद मसजिदमें नमाज़ पढ़ने जाते तो रास्तेमें एक बुढ़िया उनपर कूड़ा डालकर रोज़ तंग किया करती। हज़रत यह उपसर्ग शान्त भावसे सहकर ईश्वरसे प्रार्थना करते कि उसे सद्बुद्धि दे ।
एक दिन मुहम्मद साहबने देखा कि बुढ़ियाने कूड़ा नहीं डाला । वे उसके यहाँ गये। मालूम हुआ कि वह बीमार है। वे अपना सब काम छोड़कर उसकी तीमारदारी करने लगे। बुढ़ियाने जब उन्हें यं सेवा करते देखा तो वह शर्मसे पानी-पानी हो गई और उनके धर्ममें दीक्षित हो गई।
पाठ कौरव और पाण्डव जब बचपनमें पढ़ा करते थे तो एक दिन उन्हें पढ़ाया गया-'सच बोलो। क्रोध न करो।'
अगले दिन सिवाय युधिष्ठिरके सबने यह पाठ फरफर सुना दिया।
गुरुजी बोले-'युधिष्ठिर, तू बड़ा मन्दबुद्धि है। तू इतना छोटा पाठ भी याद करके न ला सका !'
युधिष्ठिर बोले-'गुरुजी, मैं अपनी मन्दबुद्धिपर लज्जित हूँ। पर एक दिन में तो क्या ज़िन्दगीके आखिर तक भी अगर इस सबक़पर चल सका तो अपनेको भाग्यवान् समझंगा।' सन्त-विनोद
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