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________________ शिकारी बोला-'महाराज ! अभी इन पक्षियोंमें एका है। वे मिलकर एक तरफ़ उड़ रहे हैं इसलिए जाल लिये जा रहे हैं। लेकिन कुछ देर बाद इनमें झगड़ा हो सकता है। मैं उसी उम्मीदमें इनके पीछे दौड़ रहा हूँ। शिकारीका अन्दाज़ा ठीक निकला। 'किस जगह उतरा जाय' इस बातपर दोनोंमें मतभेद हो गया। दोनों अपनी मर्जीकी जगहकी तरफ़ उड़ने लगे। फिर उनसे जाल न संभला । आखिर गिर पड़े। ( मानव-जाति भी इन दिनों 'दो तरफ़' जा रही है। काल-व्याध घात लगाये बैठा है ! ) दोस्त एक शिकारी एक तालाबके किनारे पक्षियोंको फंसानेके लिए जाल बिछाया करता था। एक बार हंसोंकी पंक्ति उस तरफ़ आई। हंसराज जालमें फँस गया। उसके वफ़ादार मन्त्रीको छोड़कर बाकी सब हंस उड़ गये। हंसराज बोला-'तुम भी उड़ जाओ। फ़िजूल जान देनेसे क्या फ़ायदा उठाओगे ?' मन्त्रोने जवाब दिया-'मैं यहाँसे चला भी जाऊँ तो भी अमर तो हो नहीं जाऊँगा । मैं तो यहीं रहकर प्राण देकर भी तुम्हें बचानेकी कोशिश करूंगा।' जब शिकारी आया तो उसने देखा कि एक हंस जालके बाहर भी डटा · बैठा है। शिकारोके पूछनेपर स्वतन्त्र हंसने बताया--'मैं अपने मालिकके बगैर नहीं जा सकता।' शिकारी-'तू चला जा, मैं तुझे नहीं पकड़ना चाहता ।' हंस-'नहीं, तू मुझे खा ले या बेच डाल, पर मेरे राजाको छोड़ दे !' इसपर शिकारीका दिल पिघल गया और उसने हंसराजको छोड़ दिया। सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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