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जा सकती हैं........।' मन यूँ चंचल था तो हाथ कैसे निश्चल रहते ? हाथसे वह उस पोटलीके 'पत्थर' एक-एक करके नदी में डालता जा रहा था। पोटली खाली हो गई, सिर्फ एक 'पत्थर' बचा, जो उसके हाथमें था। इत्तिफ़ाक़से उसकी नज़र उसपर गई। देखा, फिर देखा गौर से ! जोरसे मुट्ठी बाँध ली-यह तो नीलम था ! मछुएने अपनी छाती पीट ली !
संसारकी आशा-निराशामें पागलकी तरह उलझे हुए आदमीको भी एक दिन यह जीवन-रत्न खोकर इसी तरह पछताना पड़ता है !
-रमण महर्षि
मायावी संसार
[ गुरु वशिष्ठका एक अद्भुत रूपक ] एक शून्य नामका शहर है । उसमें तीन राजकुमार रहते थे, जिनमें दो तो अभी पैदा ही नहीं हुए थे और एक गर्भ में भी नहीं आया था। वे आफ़तमें पड़ गये। दुःखी होकर सोचने लगे। तय किया कि कहीं जाकर धन कमाना चाहिए। चलते-चलते थककर तीन पेड़ोंके नीचे आराम करने लगे। वे तीन वृक्ष ऐसे थे जिनमें दो तो उपजे ही नहीं थे और एकका बीज भी नहीं बोया गया था। उन्हींके अमृतके समान सुस्वादु फल खाये । फिर आगे बढ़े तो बहत सुन्दर, निर्मल, शीतल जलवाली तीन नदियाँ उन्हें दिखाई पड़ीं। वे नदियां ऐसी थीं कि दो में तो पानी ही नहीं था, और एक सूख गई थी। तीनोंने उन नदियोंमें बड़े आनन्दसे जलक्रीड़ा को और जल पिया । फिर चलते-चलते जब शाम हो गई तो उन्हें एक भविष्यनगर दिखाई दिया। वे उस नगरमें घुसे तो उसमें तीन मकान मिले, जिनमें दो तो अभी बने ही नहीं थे और तीसरेमें एक भी दीवार नहीं थी।
सन्त-विनोद