________________
जिन्दगी की प्याली
था
लाओत्जे, वुद्ध और कन्फ़्यूशसकी आत्माएँ स्वर्ग में मिलीं। सवाल - 'जीवनका स्वाद कैसा है ?' उसी समय एक अप्सरा हाथमें प्याला लिये आ पहुँची - 'भगवन्, यह आपके लिए जीवनका प्याला लाई हूँ । चखिए इसका स्वाद ।'
सबसे पहले लाओत्ज़ेने एक घूँट लिया । सर्प बोले- 'वाह, बड़ा मीठा है !' तब बुद्धने पीकर विषण्ण भावसे कहा - 'ओह ! बहुत कड़वा है ।' तब कन्फ़्यूशसने लिया और खाली करके रख दिया- 'दरहक़ीक़त यह न मीठा है न कड़वा और न बेस्वाद | जैसा पीनेवाला वैसा इसका स्वाद होता है । लेकिन एक बात तय है कि खुद पिये बग़ैर ज़िन्दगीको प्यालीका जायका नहीं जाना जा सकता ।'
— चीनी कथा
मानव तन
एक मछुआ था। सुबह से शाम तक नदीमें जाल डालकर मछलियाँ पकड़ने की कोशिश करता रहा । लेकिन एक भी मछली जालमें न फँसी । ज्यों-ज्यों संध्या काल नज़दीक आता गया उसकी निराशा गहरी होती गई । भगवान् का नाम लेकर उसने एक बार और जाल डाला । पर मछलियाँ इस बार भी न आई। हाँ एक वजनी पोटली उसके पाँवसे अटकी । मछुएने पोटली उठा ली । टटोला - 'हाय, ये भी पत्थर हैं !' बड़ा झुंझलाया । मन मारे नावमें चढ़ा ।
ठंडी ठंडी हवामें ज्यों-ज्यों नाव बढ़ती गई, उसके दिलमें नई आशाओंका संचार होने लगा — 'कल दूसरे किनारेपर जाल डालूंगा । सबसे "उधर कोई नहीं जाता 'वहाँ बहुतेरो मछलियाँ पकड़ी.
-
छिपकर
सन्त-विनोद
६०