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शुद्धनय का लक्षण
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि ||
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जो आत्मा को देखता है वही जिनशासन को जानता है
अध्याय
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जो नय शुद्धात्मा को बन्ध रहित, पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्व रहित, नियत (चलाचलतादि रहित), ज्ञान दर्शनादि के भेद से रहित और अन्य के संयोग से रहित ऐसे छह भावरूप (आत्मा में) देखता है, उसे शुद्धनय जानो।
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णमविसेसं । अपदेस-संत-मज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥
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The point of view which sees the soul as 1) free from bondage, 2) untouched by others, 3) distinct, 4) steady, 5) inseparable from its attributes of knowledge, faith etc., and 6 ) free from union with any other substance, is the pure point of view (şuddha naya).
(1-14-14)
(1-15-15)
जो भव्यात्मा आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष (तथा उपलक्षण से पूर्वोक्त गाथा में कथित नियत और असंयुक्त) निरंश - अखण्ड एवं परम शान्त भावस्थित आत्मा में देखता है, जानता है, अनुभव करता है वही आत्मा सम्पूर्ण जिनशासन – स्वसमय और परसमय को जानता है।
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He who sees, knows, and experiences the soul as free from bondage, untouched by others, distinct, not other than itself (also steady, and free from union - as mentioned in the previous
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