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अध्याय
verse), indivisible whole (incorporeal), and absorbed in its own blessedness, comprehends the whole Jaina doctrine, including the Real Self and non-self.
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रत्नत्रय ही आत्मा है -
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्च । ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥
साधु को (व्यवहार नय से ) सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सदा ही उपासना करनी चाहिये; और उन तीनों को निश्चय नय से एक ही आत्मा जानो।
(1-16-16)
From the empirical point of view (vyavahāra naya), right faith, knowledge, and conduct, should always be cherished by the ascetic, but from the point of view of pure nischaya naya, these three are identical with the Self.
रत्नत्रय के सेवन का क्रम
जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिदूण सहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥
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(1-17-17)
एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो । अणुचरिदव्वो य पुणो सो व दु
जैसे कोई धन का इच्छुक पुरुष राजा को (छत्र, चमर आदि राजचिह्नों से) पहचान
मक्खकामेण ॥ ( 1-18-18)