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अध्याय - 10
तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गिण्हदे किंचि। णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं॥
(10-100-407)
इस प्रकार जिसकी आत्मा आमूर्तिक है, वह निश्चय ही आहारक नहीं है। वास्तव में आहार मूर्तिक है, क्योंकि आहार पुद्गलमय है। उस आत्मा का वह कोई प्रायोगिक अथवा वैस्रसिक गुण है कि वह परद्रव्य को न ग्रहण कर सकता है, न छोड़ सकता है, अतः (अनाहारक होने के कारण) जो विशुद्ध आत्मा है, वह जीव-अजीव परद्रव्यों में न तो कुछ ग्रहण ही करता है और न कुछ छोड़ता ही है।
Since the soul is incorporeal, it is certainly non-assimilative (of food). In reality food is corporeal, comprising physical matter. There is no attribute, acquired or natural, in the soul that it can either assimilate or discard any alien substance. Therefore (being non-assimilative) the pure soul neither assimilates nor discards any alien substances - animate or inanimate.
बाह्यलिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है -
पासंडियलिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्पयाराणि। घेत्तुं वंदति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति॥
(10-101-408)
ण दु होदि मॉक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंते॥
(10-102-409)
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