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अध्याय - 10
asserted by ordinary people and monks, is the view of the wrong believers.
भाव कर्म का कर्ता जीव है - मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं। तम्हा अचेदणा दे पयडी णणु कारगा पत्ता॥ (10-21-328)
अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं। तम्हा पोंग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो॥
__(10-22-329)
अह जीवो पयडी तह पोंग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्त। तम्हा दोहि कदं तं दोण्हि वि भुंजंति तस्स फलं॥
(10-23-330)
अह ण पयडी ण जीवो पोंग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं। तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा॥ (10-24-331)
यदि (मोहनीय कर्म की) मिथ्यात्व प्रकृति आत्मा को मिथ्यादृष्टि करती है, इस मान्यता से तेरे मतानुसार अचेतन प्रकृति निश्चय ही मिथ्यात्व भाव की कर्ता हो गई। अथवा यह जीव पुद्गल द्रव्य के मिथ्यात्व को करता है, ऐसा माना जाए तो पुद्गल द्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा, जीव नहीं; अथवा जीव तथा प्रकृति – ये दोनों पुद्गल द्रव्य को मिथ्यात्वरूप करते हैं, ऐसा मानने से दोनों के द्वारा किये गये मिथ्यात्व के
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