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अध्याय - 10
परद्रव्य को अपना मानने वाला ज्ञानी मिथ्यादृष्टि है -
जह को वि णरो जंपदि अम्हाणं गामविसयणयरट्ठ। ण य होंति ताणि तस्स दु भणदि य मोहेण सो अप्पा॥
(10-18-325)
एमेव मिच्छादिट्ठी णाणी णिस्संसयं हवदि एसो। जो परदव्वं मम इदि जाणतो अप्पयं कुणदि॥
(10-19-326)
तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्हं एदाण कत्तिववसाओ। परदव्वे जाणंतो जाणेज्जा दिविरहिदाणं॥ (10-20-327)
जैसे कोई पुरुष कहता है कि यह हमारा ग्राम, जनपद, नगर और राष्ट्र है किन्तु वस्तुतः वे उसके नहीं हैं, तथापि वह आत्मा मोह से ऐसा कहता है। इसी प्रकार जो ज्ञानी 'परद्रव्य मेरा है' यह जानता हुआ परद्रव्य को निजरूप कर लेता है, वह ज्ञानी नि:सन्देह मिथ्यादृष्टि है। इसलिए 'ये परद्रव्य मेरे नहीं हैं' यह जानकर लोक और श्रमण इन दोनों के परद्रव्य में कर्तृत्व के व्यवसाय को जानते हुए समझो कि यह व्यवसाय मिथ्यादृष्टियों का है।
A person may say that this village, town, city, or nation, is his, but, in reality, these do not belong to him; he utters such words only due to his delusion. In the same way, a person, who considers an alien substance to be his own, and then identifies himself with it, is, without doubt, a wrong believer. Therefore, believe that these alien substances do not belong to you, and that the involvement of the Self in creation of non-self substances, as
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