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उत्तराध्ययन-२०/७५१
करता है, आत्मा का निग्रह नहीं करता है, रसों में आसक्त है, वह मूल से राग-द्वेष-रूप बन्धनों का उच्छेद नहीं कर सकता है ।"
[७५२] “जिसकी ईर्या, भाषा, एषणा और आदान-निक्षेप में और उच्चार-प्रस्रवण के परिष्ठापन में आयुक्तता नहीं है, वह उस मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता, जो वीरयात है
[७५३] "जो अहिंसादि व्रतों में अस्थिर है, तप और नियमों से भ्रष्ट है-वह चिर काल तक मुण्डरुचि रहकर और आत्मा को कष्ट देकर भी वह संसार से पार नहीं हो सकता ।"
[७५४] – “जो पोली मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे-सिक्के की तरह अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकने वाली तुच्छ काचमणि है, वह जानने वाले परीक्षकों की दृष्टि में मूल्यहीन है ।"
[७५५] – “जो कुशील का वेष और रजोहरणादि मुनिचिन्ह धारण कर जीविका चलाता है, असंयत होते हुए भी अपने-आप को संयत कहता है, वह चिरकाल तक विनाश को प्राप्त होता है ।"
[७५६] "पिया हुआ कालकूट-विष, उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र, अनियन्त्रित वेतालजैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही विषय-विकारों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है ।"
[७५७] -"जो लक्षण और स्वप्न-विद्या का प्रयोग करता है, निमित्त शास्त्र और कौतुक-कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या आश्चर्य को उत्पन्न करने वाली कुहेट विद्याओं सेजीविका चलाता है, वह कर्मफल-भोग के समय किसी की शरण नहीं पा सकता ।"
७५८] -"वह शीलरहित साधु अपने तीव्र अज्ञान के कारण विपरीत-दृष्टि को प्राप्त होता है, फलतः असाधु प्रकृति वाला वह साधु मुनि-धर्म की विराधना कर सतत दुःख भोगता हुआ नरक और तिर्यंच गति में आवागमन करता रहता है ।"
[७५९] -"जो औदेशिक, क्रीत, नियाग आदि के रूप में थोड़ासा-भी अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता है, वह अग्नि की भाँति सर्वभक्षी भिक्षु पाप-कर्म करके यहाँ से मरने के बाद दुर्गति में जाता है ।"
[७६०] “स्वयं की अपनी दुष्प्रवृत्ति जो अनर्थ करती है, वह गला काटने वाला शत्रु भी नहीं कर पाता है । उक्त तथ्य को संयमहीन मनुष्य मृत्यु के क्षणों में पश्चात्ताप करते हुए जान पाएगा ।"
[७६१] “जो उत्तमार्थ में विपरीत दृष्टि रखता है, उसकी श्रामण्य में अभिरुचि व्यर्थ है । उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है । दोनों लोक के प्रयोजन से शून्य होने के कारण वह उभय-भ्रष्ट भिक्षु निरन्तर चिन्ता में धुलता जाता है ।"
[७६२] – “इसी प्रकार स्वच्छन्द और कुशील साधु भी जिनोत्तम मार्ग की विराधना कर वैसे ही परिताप को प्राप्त होता है, जैसे कि भोग-रसों में आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है ।"
[७६३-७६४] “मेधावी साधक इस सुभाषित को एवं ज्ञान-गुण से युक्त अनुशासन को सुनकर कुशील व्यक्तियों के सब मार्गों को छोड़कर, महान् निर्ग्रन्थों के पथ पर चले ।" -“चारित्राचार और ज्ञानादि गुणों से संपन्न निर्ग्रन्थ निराश्रव होता है । अनुत्तर शुद्ध संयम का पालन कर वह निराश्रव साधक कर्मों का क्षय कर विपुल, उत्तम एवं शाश्वत मोक्ष को प्राप्त