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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उनके पास प्रचुर धन का संग्रह था ।"
[७३१-७३३] – “महाराज ! युवावस्था में मेरी आँखों में अतुल वेदना उत्पन्न हुई । पार्थिव ! उससे मेरे सारे शरीर में अत्यन्त जलन होती थी ।" - "कृद्ध शत्रु जैसे शरीर के मर्मस्थानों में अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र धोंपदे और उससे जैसे वेदना हो, वैसे ही मेरी आँखों में भयंकर वेदना हो रही थी ।" - "जैसे इन्द्र के वज्रप्रहार से भयंकर वेदना होती है, वैसे ही मेरे त्रिक में, हृदय में और मस्तक में अति दारुण वेदना हो रही थी ।"
[७३४-७३५] -“विद्या और मंत्र से चिकित्सा करनेवाले, मंत्र तथा औषधियों के विशारद, अद्वितीय शास्त्रकुशल, आयुर्वेदाचार्य मेरी चिकित्सा के लिए उपस्थित थे ।" -
"उन्होंने मेरे हितार्थ वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक-रूप चतुष्पाद चिकित्सा की, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके । यह मेरी अनाथता है ।"
[७३६-७३७] – “मेरे पिता ने मेरे लिए चिकित्सकों को सर्वोत्तम वस्तुएँ दीं, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके ।" - "महाराज ! मेरी माता पुत्रशोक के दुःख से बहुत पीड़ित रहती थी, किन्तु वह भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर कर सकी, यह मेरी अनाथता है ।"
[७३८-७३९] -“महाराज ! मेरे बड़े और छोटे सभी सगे भाई तथा मेरी बड़ी और छोटी सगी बहनें भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी, यह मेरी अनाथता है ।"
[७४०-७४२] -“महाराज ! मुझ में अनुरक्त और अनुव्रत मेरी पत्नी अश्रुपूर्ण नयनों से मेरे उरःस्थल को भिगोती रहती थी ।" - "वह बाला मेरे प्रत्यक्ष में या परोक्ष में कभी भी अन्न, पान, स्नान, गन्ध, माल्य और विलेपन का उपभोग नहीं करती थी ।" - "वह एक क्षण के लिए भी मुझ से दूर नहीं होती थी । फिर भी वह मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी। महाराज ! यही मेरी अनाथता है ।"
[७४३-७४५] तब मैंने विचार किया कि प्राणी को इस अनन्त संसार में बार-बार असह्य वेदना का अनुभव करना होता है ।" - "इस विपुल वेदना से यदि एक बार भी मुक्त हो जाऊँ, तो मैं क्षान्त, दान्त और निराम्भ अनगारवृत्ति में प्रव्रजित हो जाऊँगा ।" इस प्रकार विचार करके मैं सो गया । परिवर्तमान रात के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई।"
[७४६] -“तदनन्तर प्रातःकाल में नीरोग होते ही मैं बन्धुजनों को पूछकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगार वृत्ति में प्रव्रजित हो गया ।"
[७४७] -“तब मैं अपना और दूसरों का, त्रस और स्थावर सभी जीवों का नाथ हो गया ।"
[७४८-७४९] -“मेरी अपनी आत्मा ही वैतरणी नदी है, कूट-शाल्मली वृक्ष है, काम-दुधाधेनु है और नन्दन वन है ।" - "आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता–भोक्ता है । सत् प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है । और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है ।"
[७५०] “राजन् ! यह एक और भी अनाथता है । शान्त एवं एकाग्रचित्त होकर उसे सुनो ! बहुत से ऐसे कायर व्यक्ति होते हैं, जो निर्ग्रन्थ धर्म को पाकर भी खिन्न हो जाते हैं ।"
[७५१] -"जो महाव्रतों को स्वीकार कर प्रमाद के कारण उनका सम्यक् पालन नहीं