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________________ उत्तराध्ययन-१३/४१३ और काशी देश में चाण्डाल थे ।" - "देवलोक में महान ऋद्धि से सम्पन्न देव थे । यह हमारा छठवां भव है, जिसमें हम एक दूसरे को छोड़कर पृथक्-पृथक् पैदा हुए हैं ।" । [४१४] – “राजन् ! तूने निदानकृत कर्मों का विशेष रूप से चिन्तन किया । उसी कर्मफल के विपाक से हम अलग-अलग पैदा हुए हैं ।" [४१५] -"चित्र ! पूर्व जन्म में मेरे द्वारा किए गए सत्य और शुद्ध कर्मों के फल को आज मैं भोग रहा हूँ, क्या तुम भी वैसे ही भोग रहे हो ?" [४१६-४१८] मुनि-“मनुष्यों के द्वारा समाचरित सब सत्कर्म सफल होते हैं । किए हुए कर्मों के फल को भोगे बिना मुक्ति नहीं है । मेरी आत्मा भी उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्यफल से युक्त रही है ।" - "सम्भूत ! जैसे तुम अपने आपको भाग्यवान्, महान् ऋद्धि से संपन्न और पुण्यफल से युक्त समझते हो, वैसे चित्र को भी समझो । राजन् ! उसके पास भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति रही है | –“स्थविरों ने जनसमुदाय में अल्पाक्षर, किन्तु महार्थ गाथा कही थी, जिसे शील और गुणों से युक्त भिक्षु यत्न से अर्जित करते हैं । उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया ।" [४१९-४२०] चक्रवर्ती उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्मा-ये मुख्य प्रासाद तथा और भी अनेक रमणीय प्रासाद है । पांचाल देश के अनेक विशिष्ट पदार्थों से युक्त तथा प्रचुर एवं विविध धन से परि-पूर्ण इन गृहों को स्वीकार करो ।” – “तुम नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ स्त्रियों से घिरे हुए इन भोगों को भोगो । मुझे यही प्रिय है । प्रव्रज्या निश्चय से दुःखप्रद है ।" [४२१] उस राजा के हितैषी धर्म में स्थित चित्र मुनि ने पूर्व भव के स्नेह से अनुरक्त एवं कामभोगों में आसक्त राजा को इस प्रकार कहा [४२२-४२३] “सब गीत-गान विलाप हैं । समस्त नाट्य विडम्बना हैं । सब आभरण भार हैं | और समग्र काम-भोग दुःखप्रद हैं ।" - "अज्ञानियों को सुन्दर दिखनेवाले, किन्तु वस्तुतः दुःखकर कामभोगों में वह सुख नहीं है, जो सुख शीलगुणों में रत, कामनाओं से निवृत्त तपोधन भिक्षुओं को है ।" [४२४-४२६] “हे नरेन्द्र ! मनुष्यों में जो चाण्डाल जाति अधम जाति मानी जाती है, उसमें हम दोनों उत्पन्न हो चुके हैं, चाण्डालों की बस्ती में हम दोनों रहते थे, जहाँ सभी लोग हमसे द्वेष करते थे ।" - "उस जाति में हमने जन्म लिया था और वहीं हम दोनों रहे थे । तब सभी हमसे धृणा करते थे । अतः यहां जो श्रेष्ठता प्राप्त है, वह पूर्व जन्म के शुभ कर्मों का फल है ।" - "पूर्व शुभ कर्मों के फलस्वरूप इस समय वह तू अब महानुभाग, महान् ऋद्धिवाला राजा बना है । अतः तू क्षणिक भोगों को छोड़कर चारित्र धर्म की आराधना के हेतु अभिनिष्क्रमण कर ।" [४२७-४३१] -“राजन् ! इस अशाश्वत मानवजीवन में जो विपुल पुण्यकर्म नहीं करता है, वह मृत्यु के आने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म न करने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है ।" - "जैसे कि यहाँ सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाता है । मृत्यु के समय में उसके मात-पिता और भाई कोई भी मृत्युदुःख में हिस्सेदार नहीं होते हैं ।" - "उसके दुःख को न जाति के लोग बँटा
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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