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उत्तराध्ययन-२/९२
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का संवरण किया । क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी है, यह मैं प्रत्यक्ष तो कुछ देख पाता नहीं हूँ-" ऐसा मुनि न सोचे । “तप और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमाओं का भी पालन कर रहा हूं, इस प्रकार विशिष्ट साधनापथ पर विहरण करने पर भी मेरा छद्म दूर नहीं हो रहा है-" ऐसा चिन्तन न करे ।
[९३-९४] “निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, मैं तो धर्म के नाम पर ठगा गया हूँ"-"पूर्व काल में जिन हुए थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे'ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं"-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे ।
[९५] कश्यप-गोत्रीय भगवान महावीर ने इन सभी परीषहों का प्ररूपण किया है । इन्हें जानकर कहीं भी किसी भी परीषह से स्पृष्ट-आक्रान्त होने पर भिक्षु इनसे पराजित न हो। -ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
( अध्ययन-३-चातुरंगीय) [९६] इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं मनुष्यत्व, सद्धर्म का श्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ ।।
[९७] नाना प्रकार के कर्मों को करके नानाविध जातियों में उत्पन्न होकर, पृथक्पृथक् रूप से प्रत्येक संसारी जीव समस्त विश्व को स्पर्श कर लेते हैं
[९८] अपने कृत कर्मों के अनुसार जीव कभी देवलोक में, कभी नरक में और कभी असुर निकाय में जाता है
९९] यह जीव कभी क्षत्रिय, कभी चाण्डाल, कभी वोक्कस, कभी कुंथु और कभी चींटी होता है ।
[१००] जिस प्रकार क्षत्रिय लोग चिरकाल तक समग्र ऐश्वर्य एवं सुखसाधनों का उपभोग करने पर भी निर्वेद-को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्मों से मलिन जीव अनादि काल से आवर्तस्वरूप योनिचक्र में भ्रमण करते हुए भी संसार दशा से निर्वेद नहीं पाते हैं
[१०१] कर्मों के संग से अति मूढ, दुःखित और अत्यन्त वेदना से युक्त प्राणी मनुष्येतर योनियों में जन्म लेकर पुनः पुनः विनिघातपाते हैं ।
[१०२] कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगतिनिरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि प्राप्त होती है और उसके फलस्वरूप उन्हें मनुष्यत्व प्राप्त होता है ।
[१०३] मनुष्यशरीर प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे सुनकर जीव तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त करते है ।
[१०४] कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाए, फिर भी उस पर श्रद्धा होना परम दुर्लभ है । बहुत से लोग नैयायिक मार्ग को सुनकर भी उससे विचलित हो जाते हैं ।।
[१०५] श्रुति और श्रद्धा प्राप्त करके भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है । बहुत से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्तया स्वीकार नहीं कर पाते ।
[१०६] मनुष्यत्व प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर संवृत होता है, कर्म रज को दूर करता है ।