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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
है । प्रतिरिक्त एकान्त उपाश्रय पाकर, भले ही वह अच्छा हो या बुरा, उसमें मुनि को समभाव से यह सोच कर रहना चाहिए कि यह एक रात क्या करेगी ?
[७३-७४] यदि कोई भिक्षु को गाली दे, तो वह उसके प्रति क्रोध न करे । क्रोध करने वाला अज्ञानियों के सदृश होता है । अतः भिक्षु आक्रोश-काल में संज्वलित न हो, दारुण, ग्रामकण्टक की तरह चुभने वाली कठोर भाषा को सुन कर भिक्षु मौन रहे, उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए ।
[७५-७६] मारे-पीटे जाने पर भी भिक्षु क्रोध न करे । दुर्भावना से मन को भी दूषित न करे । तितिक्षा-को साधना का श्रेष्ठ अंग जानकर मुनिधर्म का चिन्तन करे । संयत और दान्त-श्रमण को यदि कोई कहीं मारे-पीटे तो यह चिन्तन करे कि आत्मा का नाश नहीं होता है ।
[७७-७८] वास्तव में अनगार भिक्षु ही यह चर्या सदा से ही दुष्कर रही है कि उसे वस्त्र, पात्र, आहारादि सब कुछ याचना से मिलता है । उसके पास कुछ भी अयाचित नहीं होता है । गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट साधु के लिए गृहस्थ के सामने हाथ फैलाना सरल नही है, अतः ‘गृहवास ही श्रेष्ठ है'-मुनि ऐसा चिन्तन न करे ।
[७९-८०] गृहस्थों के घरों में भोजन तैयार हो जाने पर आहार की एषणा करे । आहार थोड़ा मिले, या न मिले, पर संयमी मुनि इसके लिए अनुताप न करे । 'आज मुझे कुछ नहीं मिला, संभव है, कल मिल जाय'-जो ऐसा सोचता है, उसे अलाभ कष्ट नहीं देता ।
[८१-८२] 'कर्मों के उदय से रोग उत्पन्न होता है'-ऐसा जानकर वेदना से पीड़ित होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित प्रज्ञा को स्थिर बनाए और प्राप्त पीड़ा को समभाव से सहे । आत्मगवेषक मुनि चिकित्सा का अभिनन्दन न करे, समाधिपूर्वक रहे । यही उसका श्रामण्य है कि वह रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा न करे, न कराए ।
[८३-८४] अचेलक और रूक्षशरीरी संयत तपस्वी साधु को घास पर सोने से शरीर को कष्ट होता है । गर्मी पड़ने से घास पर सोते समय बहुत वेदना होती है, यह जान करके तृण-स्पर्श से पीड़ित मुनि वस्त्र धारण नहीं करते हैं ।
[८५-८६] ग्रीष्म ऋतु में मैल से, रज से अथवा परिताप से शरीर के लिप्त हो जाने पर मेधावी मुनि साता के लिए विलाप न करे । निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्यधर्म को पाकर शरीर-विनाश के अन्तिम क्षणों तक भी शरीर पर जल्ल-स्वैद-जन्य मैल को रहने दे ।
[८७-८८] राजा आदि द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार एवं निमन्त्रण को जो अन्य भिक्षु स्वीकार करते हैं, मुनि उनकी स्पृहा न करे । अनुत्कर्ष, अल्प इच्छावाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेनेवाला अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्ध-आसक्त न हो । प्रज्ञावान् दूसरों को सम्मान पाते देख अनुताप न करे ।
[८९-९०] “निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञानरूप फल देनेवाले अपकर्म किए हैं, जिससे मैं किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर कुछ भी उत्तर देना नहीं जानता हूँ।" 'अज्ञानरूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म परिपक्व होने पर उदय में आते हैं'-इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि अपने को आश्वस्त करे ।
[९१-९२] "मैं व्यर्थ में ही मैथुनादि सांसारिक सुखों से विरक्त हुआ, इन्द्रिय और मन