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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद [४२] जो व्यवहार धर्म से अर्जित है, और प्रबुद्ध आचार्यों के द्वारा आचरित है, उस व्यवहार को आचरण में लाने वाला मुनि कभी निन्दित नहीं होता है । [४३] शिष्य आचार्य के मनोगत और वाणीगत भावों को जान कर उन्हें सर्वप्रथम वाणी से ग्रहण करे और फिर कार्य में परिणत करे । ५४ [ ४४] विनयी शिष्य गुरु द्वारा प्रेरित न किए जाने पर भी कार्य करने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है । प्रेरणा होने पर तत्काल यथोपदिष्ट कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करता है । [४५] विनय के स्वरूप को जानकर जो मेधावी शिष्य विनम्र हो जाता है, उसकी लोक में कीर्ति होती है । प्राणियों के लिए पृथ्वी के आधार समान योग्य शिष्य समय पर धर्माचरण करनेवालों का आधार बनता है । [४६ ] शिक्षण काल से पूर्व ही शिष्य के विनय-भाव से परिचित, संबुद्ध, पूज्य आचार्य उस पर प्रसन्न रहते हैं प्रसन्न होकर वे उसे अर्थगंभीर विपुल श्रुतज्ञान का लाभ । करवाते हैं । [ ४७ ] वह शिष्य पूज्यशास्त्र होता है - उसके सारे संशय मिट जाते है । वह गुरु के मन को प्रिय होता है । वह कर्मसम्पदा युक्त होता है । तप समाचारी और समाधि सम्पन्न होता है। पांच महाव्रतों का पालन करके वह महान् तेजस्वी होता है । [४८] वह देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित विनयी शिष्य मल पंक से निर्मित इस देह को त्याग कर शाश्वत सिद्ध होता है अथवा अल्प कर्म वाला महान् ऋद्धिसम्पन्न देव होता है । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - १० - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन - २ - परीषहविभक्ति [४९] आयुष्मन् ! भगवान् ने कहा है-श्रमण जीवन में बाईस परीषह होते हैं, जो कश्यप गोत्रीय श्रमम भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित हैं, जिन्हें सुनकर, जानकर, परिचित कर, पराजित कर, भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ मुनि, परीषहों से स्पृष्ट- होने पर विचलित नहीं होता । वे बाईस परीषह कौन से हैं ? वे बाईस परीषह इस प्रकार है- क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, अचेल, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, जल्ल, सत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन परीसह । [५० ] कश्यप गोत्रीय भगवान् महावीर ने परीषहों के जो भेद बताए हैं, उन्हें मैं तुम्हें कहता हूँ । मुझसे तुम अनुक्रम से सुनो । [५१-५२] बहुत भूख लगने पर भी मनोबल से युक्त तपस्वी भिक्षु फल आदि का न स्वयं छेदन करे, न कराए, उन्हें न स्वयं पकाए और न पकवाए । लंबी भूख के कारण काकजंघा के समान शरीर दुर्बल हो जाए, कृश हो जाए, धमनियाँ स्पष्ट नजर आने लगें, तो भी अशन एवं पानरूप आहार की मात्रा को जानने वाला भिक्षु अदीनभाव से विचरण करे । [ ५३-५४] असंयम से अरुचि रखनेवाला, लज्जावान् संयमी भिक्षु प्यास से पीड़ित होने पर भी सचित्त जल का सेवन न करे, किन्तु अचित्त जल की खोज करे । यातायात से शून्य एकांत निर्जन मार्गों में भी तीव्र प्यास से आतुर होने पर, मुँह के सूख जाने पर भी मुनि
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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