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उत्तराध्ययन-१/२९
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[२९] भयमुक्त, मेधावी प्रबुद्ध शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं । किन्तु वही क्षमा एवं चित्तविशुद्धि करनेवाला गुरु का अनुशासन मूों के लिए द्वेष का निमित्त होता है ।
[३०] शिष्य ऐसे आसन पर बैठे, जो गुरु के आसन से नीचा हो, जिस से कोई आवाझ न निकलती हो, स्थिर हो । आसन से बार-बार न उठे । प्रयोजन होने पर भी कम ही उठे, स्थिर एवं शान्त होकर बैठे ।
[३१] भिक्षु समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौटे । असमय में कोई कार्य न करे । समय पर ही सब कार्य करे ।
[३२] भिक्षा के लिए गया हुआ भिक्षु, खाने के लिए उपविष्ट लोगों की पंक्ति में न खड़ा रहे । मुनि की मर्यादा के अनुरूप एषणा करके गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ आहार स्वीकार करे और शास्त्रोक्त काल में आवश्यकतापूर्तिमात्र परिमित भोजन करे ।
[३३] यदि पहले से ही अन्य भिक्षु गृहस्थ के द्वार पर खड़े हों तो उनसे अतिदूर या अतिसमीप खड़ा न रहे और न देने वाले गृहस्थों की दृष्टि के सामने ही रहे, किन्तु एकान्त में अकेला खड़ा रहे । उपस्थित भिक्षुओं को लांघ कर घर में भोजन लेने को न जाए ।
[३४] संयमी मुनि प्रासुक और परकृत आहार ले, किन्तु बहुत ऊँचे या नीचे स्थान से लाया हुआ तथा अति समीप या अति दूर से दिया जाता हुआ आहार न ले ।।
[३५] संयमी मुनि प्राणी और बीजों से रहित, ऊपर से ढके हुए और दीवार आदि से संवृत मकान में अपने सहधर्मी साधुओं के साथ भूमि पर न गिराता हुआ विवेकपूर्वक आहार करे ।
[३६] आहार करते समय मुनि, भोज्य पदार्थों के सम्बन्ध में-अच्छा किया है, अच्छा पकाया है, अच्छा काटा है, अच्छा हुआ है, अच्छा प्रासुक हो गया है, अथवा घृतादि अच्छा भरा है-अच्छा रस उत्पन्न हो गया है, बहुत ही सुन्दर हैं-इस प्रकार के सावद्य-वचनों का प्रयोग न करे ।
[३७] मेधावी शिष्य को शिक्षा देते हुए आचार्य वैसे ही प्रसन्न होते हैं, जैसे कि वाहक अच्छे घोड़े को हाँकता हुआ प्रसन्न रहता है । अबोध शिष्य को शिक्षा देते हुए गुरु वैसे ही खिन्न होता है, जैसे कि दुष्ट घोड़े को हांकता हुआ उसका वाहक !
[३८] गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को पापदृष्टिवाला शिष्य ठोकर और चांटा मारने, गाली देने और प्रहार करने के समान कष्टकारक समझता है ।।
[३९] 'गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह आत्मीय समझकर शिक्षा देते हैं'ऐसा सोचकर विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है । परन्तु पापदृष्टिवाला कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास समान समझता है ।
[४०] शिष्य न तो आचार्य को कुपित करे और न कठोर अनुशासनादि से स्वयं कुपित हो । आचार्य का उपघात करनेवाला न हो और न गुरु का छिद्रान्वेषी हो ।
[४१] अपने किसी अभद्र व्यवहार से आचार्य को अप्रसन्न हुआ जाने तो विनीत शिष्य प्रीतिवचनों से प्रसन्न करे । हाथ जोड़ कर शान्त करे और कहे कि “मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा ।"