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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
तीर्थंकर देव विभूषा में संलग्न चित्त को कर्मबन्ध का हेतु मानते हैं । ऐसा चित्त सावद्य-बहुल है । यह षट्काय के त्राता के द्वारा आसेवित नहीं है ।
२९२] व्यामोह-रहित तत्त्वदर्शी तथा तप, संयम और आर्जव गुण में रत रहने वाले वे साधु अपने शरीर को क्षीण कर देते हैं । वे पूर्वकृत पापों का क्षय कर डालते हैं और नये पाप नहीं करते ।
[२९३] सदा उपशान्त, ममत्व-रहित, अकिंचन अपनी अध्यात्म-विद्या के अनुगामी तथा जगत के जीवों के त्राता और यशस्वी हैं, शरदऋतु के निर्मल चन्द्रमा के समान सर्वथा विमल साधु सिद्धि को अथवा सौधर्मावतंसक आदि) विमानों को प्राप्त करते हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-७-वाक्यशुद्धि ) [२९४] प्रज्ञावान् साधु चारों ही भाषाओं को जान कर दो उत्तम भाषाओं का शुद्ध प्रयोग करना सीखे और दो (अधम) भाषाओं को सर्वथा न बोले ।
[२९५-२९८] तथा जो भाषा सत्य है, किन्तु अवक्तव्य है, जो सत्या-मृषा है, तथा मृषा है एवं जो असत्यामृषा है, (किन्तु) तीर्थंकरदेवों के द्वारा अनाचीर्ण है, उसे भी प्रज्ञावान् साधु न बोले । जो असत्याऽमषा और सत्यभाषा अनवद्य, अकर्कश और असंदिग्ध हो, उसे सम्यक् प्रकार से विचार कर बोले । सत्यामृषा भी न बोले, जिसका यह अर्थ है, या दूसरा है ? (इस प्रकार से) अपने आशय को संदिग्ध बना देती हो । जो मनुष्य सत्य दीखनेवाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है, उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है, तो फिर जो मृषा बोलता है, उसके पाप का तो क्या कहना ? ।
[२९९-३०३] हम जाएंगे, हम कह देंगे, हमारा अमुक (कार्य) अवश्य हो जाएगा, या मैं अमुक कार्य करूंगा, अथवा यह (व्यक्ति) यह (कार्य) अवश्य करेगा; यह और इसी प्रकार की दूसरी भाषाएँ, जो भविष्य, वर्तमान अथवा अतीतकाल-सम्बन्धी अर्थ के सम्बन्ध में शंकित हों; धैर्यवान् साधु न बोले । अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जिस अर्थ को न जानता हो अथवा जिसके विषय में शंका हो उसके विषय में 'यह इसी प्रकार है,' ऐसा नहीं बोलना । अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जो अर्थ निःशंकित हो, उसके विषय में 'यह इस प्रकार है', ऐसा निर्देश करे ।
[३०४-३०६] इसी प्रकार जो भाषा कठोर हो तथा बहुत प्राणियों का उपघात करने वाली हो, वह सत्य होने पर भी बोलने योग्य नहीं है; क्योंकि ऐसी भाषा से पापकर्म का बन्ध (या आस्रव) होता है । इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक तथा रोगी को रोगी
और चोर को चोर न कहे । इस उक्त अर्थ से अथवा अन्य ऐसे जिस अर्थ से कोई प्राणी पीड़ित होता है, उस अर्थ को आचार सम्बन्धी भावदोष को जाननेवाला प्रज्ञावान् साधु न बोले।
[३०७-३१३] इसी प्रकार प्रज्ञावान् साधु, 'रे होल !, रे गोल !, ओ कुत्ते !, ऐ वृषल (शूद्र) !, हे द्रमक !, ओ दुर्भग !' इस प्रकार न बोले । स्त्री को-हे दादी ! हे परदादी !, हे