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दशवैकालिक-६/-/२६८
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[२६८-२७०] सुसमाधियुक्त संयमी मन, वचन, काया तथा त्रिविध करण से कायिक जीवों की हिंसा नहीं करते । त्रसकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष और अचाक्षुष प्राणियों की हिंसा करता है । इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर जीवनपर्यन्त सकाय के समारम्भ काय त्याग करे ।
[२७१-२७४] जो आहार आदि चार पदार्थ ऋषियों के लिए अकल्पनीय हैं, उनका विवर्जन करता हुआ (साधु) संयम का पालन करे । अकल्पनीय पिण्ड, शय्या, वस्त्र और पात्र को ग्रहण करने की इच्छा न करे, ये कल्पनीय हों तो ग्रहण करे । जो साधु-साध्वी नित्य निमंत्रित कर दिया जाने वाला, क्रीत, औद्देशिक और आहृत आहार ग्रहण करते हैं, वे प्राणियों के वध का अनुमोदन करते हैं, ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है । इसलिए धर्मजीवी, स्थितात्मा, निर्ग्रन्थ, क्रीत, औद्देशिक एवं आहत अशन-पान आदि का वर्जन करते हैं ।
[२७५-२७७] गृहस्थ के कांसे के कटोरे में या बर्तन में जो साधु अशन, पान आदि खाता-पीता है, वह श्रमणाचार से परिभ्रष्ट हो जाता है । (गृहस्थ के द्वारा) उन बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और बर्तनों के धोए हुए पानी को डालने में जो प्राणी निहत होते हैं, उसमें तीर्थंकरों ने असंयम देखा है । कदाचित् पश्चात्कर्म और पुरः कर्म दोष संभव है । इसी कारण वे गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करते ।
[२७८-२८०] आर्य के लिए आसन्दी और पलंग पर मंच और आसालक पर बैठना या सोना अनाचरित है । तीर्थंकरदेवों द्वारा कथित आचार का पालन करनेवाले निर्ग्रन्थ में बैठना भी पड़े तो बिना प्रतिलेखन किये, आसन्दी, पलंग आदि बैठते उठते या सोते नहीं है । ये सब शयनासन गम्भीर छिद्र वाले होते हैं, इनमें सूक्ष्म प्राणियों का प्रतिलेखन करना दुःशक्य होता है; इसलिए आसन्दी आदि पर बैठना या सोना वर्जित है ।
[ २८१-२८४] भिक्षा के लिए प्रविष्ट जिस (साधु) को गृहस्थ के घर में बैठना अच्छा लगता है, वह इस प्रकार के अनाचार को तथा उसके अबोधि रूप फल को प्राप्त होता है । वहां बैठने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन न करने में विपत्ति, प्राणियों का वध होने से संयम का घात, भिक्षाचरों को अन्तराय और घर वालों को क्रोध, उत्पन्न होता है, (गृहस्थ के घर में बैठने से) ब्रह्मचर्य की असुरक्षा होती है; स्त्रियों के प्रति भी शंका उत्पन्न होती है । अतः यह गृहस्थगृहनिषद्या कुशीलता बढ़ाने वाला स्थान है, साधु इसका दूर से ही परिवर्जन कर दे । जरा ग्रस्त, व्याधि पीड़ित और तपस्वी के लिए गृहस्थ के घर में बैठना कल्पनीय है ।
[ २८५ - २८७] रोगी हो या नीरोगी, जो साधु स्नान करने की इच्छा करता है, उसके आचार का अतिक्रमण होता है; उसका संयम भी त्यक्त होता है । पोली भूमि में और भूमि को दरारों में सूक्ष्म प्राणी होते हैं । प्रासुक जल से भी स्नान करता हुआ भिक्षु उन्हें प्लावित र है । इसलिए वे शीतल या उष्ण जल से स्नान नहीं करते । वे जीवन भर घोर अस्नानव्रत पर दृढ़ता से टिके रहते हैं ।
[ २८८-२९१] संयमी साधु स्नान अथवा अपने शरीर का उबटन करने के लिए कल्क, लोघ्र, या पद्मराग का कदापि उपयोग नहीं करते । नग्न, मुण्डित, दीर्घ रोम और नखों वाले तथा मैथुनकर्म से उपशान्त साधु को विभूषा से क्या प्रयोजन ? विभूषा के निमित्त से साधु चिकने कर्म बाँधता है, जिसके कारण वह दुस्तर संसार - सागर में जा पड़ता है ।
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