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अनुयोगद्वार-३०९
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प्रत्युत्पन्न और अनागत के ज्ञाता त्रिलोकवर्ती जीवों द्वारा सहर्ष वंदित, पूजित सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहंत भगवन्तों द्वारा प्रणीत आचारांग यावत् दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग रूप गणिपिटक लोकोत्तरिक आगम हैं ।।
__ अथवा तीन प्रकार का है । जैसे-सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम । अथवा (लोकोत्तरिक) आगम तीन प्रकार का है । आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । अर्थागम तीर्थंकरों के लिये आत्मागम है । सूत्र का ज्ञान गणधरों के लिये आत्मागम और अर्थ का ज्ञान अनन्तरागम रूप है । गणधरों के शिष्यों के लिये सूत्रज्ञान अनन्तरागम और अर्थ का ज्ञान परम्परागम है । तत्पश्चात् सूत्र और अर्थ रूप आगम आत्मागम भी नहीं है, अनन्तरागम भी नहीं है, किन्तु परम्परागम है । इस प्रकार से लोकोत्तर आगम का स्वरूप जानना ।
दर्शनगुणप्रमाण क्या है ? चार प्रकार का है । चक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अचक्षुदर्शनगुणप्रमाण, अवधिदर्शनगुणप्रमाण और केवलदर्शनगुणप्रमाण । चक्षुदर्शनी का चक्षुदर्शन घट, पट, कट, रथ आदि द्रव्यों में होता है । अचक्षुदर्शनी का अचक्षुदर्शन आत्मभाव में होता है । अवधिदर्शनी का अवधिदर्शन सभी रूपी द्रव्यों में होता है, किन्तु सभी पर्यायों में नहीं होता है । केवलदर्शनी का केवलदर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायों में होता है ।
भगवन् ! चारित्रगुणप्रमाण किसे कहते हैं ? पांच भेद हैं । सामायिकचारित्रगुणप्रमाण, छेदोपस्थापनीयचारित्रगुणप्रमाण, परिहारविशुद्धिचारित्रगुणप्रमाण, सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण, यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण । इनमें से-सामायिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया हैइत्वरिक और यावत्कथिक । छेदोपस्थापनीयचारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं, सातिचार और निरतिचार । परिहारविशुद्धिकचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का है-निर्विश्यमानक, निर्विष्टकायिक । सूक्ष्मसंपरायचारित्रगुणप्रमाण दो प्रकार का है-संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक । यथाख्यातचारित्रगुणप्रमाण के दो भेद हैं । प्रतिपाती और अप्रतिपाती । अथवा छाद्मस्थिक और कैवलिक ।
[३१०] नयप्रमाण क्या है ? वह तीन दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया गया है । जैसे किप्रस्थक के, वसति के और प्रदेश के दृष्टान्त द्वारा ।
भगवन् ! प्रस्थक का दृष्टान्त क्या है ? जैसे कोई पुरुष परशु लेकर वन की ओर जाता है । उसे देखकर किसी ने पूछा-आप कहाँ जा रहे हैं ? तब अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उसने कहा-प्रस्थक लेने के लिये जा रह हूँ । फिर उसे वृक्ष को छेदन करते देखकर कोई कहेआप क्या काट रहे हैं ? तब उसने विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया-मैं प्रस्थक काट रहा हूँ । कोई उस लकड़ी को छीलते देखकर पूछे-आप यह क्या छील रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की अपेक्षा उसने कहा-प्रस्थक छील रहा हूँ । कोई काष्ठ के मध्यभाग को उत्कीर्ण करते देखकर पूछे-आप यह क्या उत्कीर्ण कर रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार उसने उत्तर दिया-मैं प्रस्थक उत्कीर्ण कर रहा हूँ । उस उत्कीर्ण काष्ठ पर प्रस्थक का आकार लेखन करते देखकर कहे-आप यह क्या लेखन कर रहे हैं ? तो विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया-प्रस्थक अंकित कर रहा हूँ । इसी प्रकार से जब तक संपूर्ण प्रस्थक निष्पन्न न हो जाये, तब तक प्रस्थक संबंधी प्रश्नोत्तर करना चाहिये । इसी प्रकार व्यवहारनय से भी जानना । संग्रहनय के मत से धान्यपरिपूरित प्रस्थक को ही प्रस्थक कहते हैं । ऋजुसूत्रनय