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________________ उत्तराध्ययन-३२/१३३९ १३१ उसे उपभोगकाल में भी तृप्ति नहीं मिलती है । [१३४०-१३४१] भाव में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोप को प्राप्त नहीं होता । वह असंतोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तु चुराता है । दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ाता है | कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है । [१३४२] झूठ बोलने के पहले, उसके बाद, और बोलने के समय वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखरूप है । इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है । [१३४३] इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब और कितना सुख होगा? जिसे पाने के लिए दुःख उठाता है । उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है । [१३४४] इसी प्रकार जो भाव के प्रति द्वेप करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेप-युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं । [१३४५] भाव में विरक्त मनुष्य शोक-रहित होता है । वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से ।। [१३४६] इस प्रकार रागी मनुष्य के लिए इन्दिश्य और मन के जो विषय दुःख के हेतु हैं, वे ही वीतराग के लिए कभी भी किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते हैं । [१३४७] काम-भोग न समता-समभाव लाते हैं, और न विकृति लाते हैं | जो उनके प्रति द्वेप और ममत्त्व रखता है, वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है ।। [१३४८-१३४९] क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुपवेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद तथा हर्ष विषाद आदि विविध भावों को–अनेक प्रकार के विकारों को, उनसे उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह प्राप्त होता है, जो कामगुणों में आसक्त है । और वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय भी होता है । [१३५०] शरीर की सेवारूप सहायता आदि की लिप्सा से कल्पयोग्य शिष्य की भी इच्छा न करे । दीक्षित होने के बाद अनुतप्त होकर तप के प्रभाव की इच्छा न करे । इन्द्रियरूपी चोरों के वशीभूत जीव अनेक प्रकार के अपरिमित विकारों को प्राप्त करता है । [१३५१] विकारों के होने के बाद मोहरूपी महासागर में डुबाने के लिए विषयासेवन एवं हिंसादि अनेक प्रयोजन उपस्थित होते हैं । तब वह सुखाभिलाषी रागी व्यक्ति दुःख से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करता है । [१३५२] इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषय हैं, वे सभी विरक्त व्यक्ति के मन में मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते हैं । [१३५३] “अपने ही संकल्प-विकल्प सब दोषो के कारण हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं"-ऐसा जो संकल्प करता है, उसके मन में समता जागृत होती है और उससे उसकी काम-गुणों की तुष्णा क्षीण होती है । [१३५४] वह कृतकृत्य वीतराग आत्मा क्षणभर में ज्ञानावरण का क्षय करता है । दर्शन के आवरणों को हटाता है और अन्तराय कर्म को दूर करता है ।
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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