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________________ ११४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पराक्रम' अध्ययन में काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान महावीर ने जो प्ररूपणा की है, उसकी सम्यक् श्रद्धा से, प्रतीति से, रुचि से, स्पर्श से, पालन करने से, गहराई पूर्वक जानने से, कीर्तन से, शुद्ध करने से, आराधना करने से, आज्ञानुसार अनुपालन करने से बहुत से जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, सब दुःखों का अन्त करते हैं । [१११३] उसका यह अर्थ है, जो इस प्रकार कहा जाता है । जैसे कि संवेग, निर्वेद, धर्म श्रद्धा, गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा, आलोचना, निन्दा, गर्हा, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, स्तव-स्तुति-मंगल, कालप्रतिलेखना, प्रायश्चित्त, क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना, प्रतिप्रच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, श्रुत आराधना, मन की एकाग्रता, संयम, तप, व्यवदान, सुखशात, अप्रतिबद्धता, विविक्त शयनासन सेवन, विनिवर्तना, संभोगप्रत्ख्न, उपधि-प्रत्याख्यान, आहार-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, योग-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, सहाय-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, सद्भाव-प्रत्याख्यान, प्रतिरूपता, वैयावृत्य, सर्वगुण-संपन्नत, वीतरागता, क्षान्ति, निर्लोभता, आर्जव-ऋजुता, मार्दव मृदुता, भाव-सत्य, करण-सत्य, योग-सत्य, मनोगुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति, मनःसमाधारणा, वाक्-समाधारणा, काय-समाधारणा, ज्ञानसंपन्नता, दर्शनसंपन्नता, चारित्रसंपन्नता, श्रोत्र-इन्द्रियनिग्रह, चक्षुष्-इन्द्रिय-निग्रह, घ्राण-इन्द्रिय-निग्रह, जिह्वा-इन्द्रिय-निग्रह, स्पर्शन-इन्द्रिय-निग्रह, क्रोधविजय, मानविजय, मायाविजय, लोभविजय, प्रेय-द्वेष-मिथ्यादर्शन विजय, शैलेशी और अकर्मता । [१११४] भन्ते ! संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है ? संवेग से जीव अनुत्तरपरम धर्म-श्रद्धा को प्राप्त होता है । परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग आता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है । नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है । मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन का आराधक होता है । दर्शनविशोधि के द्वारा कई जीव उसी जन्म से सिद्ध होते हैं । और कुछ तीसरे भवका अतिक्रमण नहीं करते हैं । [१११५] भन्ते ! निर्वेद से जीव को क्या प्राप्त होता है ? निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यच-सम्बन्धी काम-भोगों में शीघ्र निर्वेद को प्राप्त होता है । सभी विषयों में विरक्त होता है । आरम्भ का परित्याग करता है । आरम्भ का परित्याग कर संसार-मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि मार्ग को प्राप्त होता है । [१११६] भन्ते ! धर्म-श्रद्धा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? धर्मश्रद्धा से जीव सात-सुख कर्मजन्य वैषयिक सुखों की आसक्ति से विरक्त होता है । अगार-धर्म को छोड़ता है । अनगार होकर छेदन, भेदन आदि शारीरिक तथा संयोगादि मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है, अव्याबाध सुख को प्राप्त होता है । [१११७] भन्ते ! गुरु और साधार्मिक की शुश्रूषा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? गुरु और साधार्मिक की शुश्रूषा से जीव विनयप्रतिपत्ति को प्राप्त होता है । विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवादादिरूप आशातना नहीं करता । उससे वह नैरयिक, तिर्यग्, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है । वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान से मनुष्य और देवसम्बन्धी सुगति का बन्ध करता है । और श्रेष्ठगतिस्वरूप सिद्धि को विशुद्ध करता है ।
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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