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उत्तराध्ययन- २८/१०९६
सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है, वह 'सूत्ररुचि' जानना ।
[१०९७] जैसे जल में तेल की बूँद फैल जाती है, वैसे ही जो सम्यक्त्व एक पद से अनेक पदों में फैलता है, वह 'बीजरुचि' है ।
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[१०९८] जिसने ग्यारह अंग, प्रकीर्णक, दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान अर्थ सहित प्राप्त किया है, वह 'अभिगमरुचि' है ।
[१०९९] समग्र प्रमाणों और नयों से जो द्रव्यों के सभी भावों को जानता है, वह 'विस्ताररुचि' है ।
[११००] दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्ति आदि क्रियाओं में जो भाव से रुचि है, वह 'क्रियारुचि' है ।
[११०१] जो निर्ग्रन्थ-प्रवचन में अकुशल है, साथ ही मिथ्या प्रवचनों से भी अनभिज्ञ है, किन्तु कुदृष्टि का आग्रह न होने के कारण अल्प-बोध से ही जो तत्त्व श्रद्धा वाला है, वह 'संक्षेपरुचि' है ।
[११०२] जिन कथित अस्तिकाय धर्म में, श्रुत-धर्म में और चारित्र - धर्म में श्रद्धा करता है, वह 'धर्मरुचि' वाला है ।
[११०३] परमार्थ को जानना, परमार्थ के तत्त्वद्रष्टाओं की सेवा करना, व्यापन्नदर्शन और कुदर्शन से दूर रहना, सम्यक्त्व का श्रद्धान् है ।
[११०४ - ११०५] चारित्र सम्यक्त्व के बिना नहीं होता है, किन्तु सम्यक्त्व चारित्र के विना हो सकता है । सम्यक्त्व और चारित्र युगपद् - एक साथ ही होते हैं । चारित्र से पूर्व सम्यक्त्व का होना आवश्यक है । सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता है, ज्ञान के बिना चारित्र - गुण नहीं होता है । चारित्र - गुण के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता है ।
[११०६ ] निःशंका; निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ-दृष्टि उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना -ये आठ सम्यक्त्व के अंग हैं ।
[११०७-११०८] चारित्र के पाँच प्रकार हैं- सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और पाँचवाँ यथाख्यात चारित्र है, जो सर्वथा कषायरहित होता है । वह छद्मस्थ और केवली - दोनों को होता है । ये चारित्र कर्म के चय को रिक्त करते हैं, अतः इन्हें चारित्र कहते हैं ।
[११०९] तप के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकार का है, इसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है ।
[१११०] आत्मा ज्ञान से जीवादि भावों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान् करता है, चारित्र से कर्म - आश्रव का निरोध करता है, और तप से विशुद्ध होता है ।
[११११] सर्व दुःखों से मुक्त होने के लिए महर्षि संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ ।
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अध्ययन- २९ - सम्यक्त्वपराक्रम
[१११२] आयुष्यमन् ! भगवान ने जो कहा है, वह मैंने सुना है । इस 'सम्यकत्व