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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
लेने से दस जीत लिए गए । दसों को जीतकर मैंने सब शत्रुओं को जीत लिया ।"
[८८३-८८४] - "गौतम ! वे शत्रु कौन होते हैं ?" केशी ने गौतम को कहा । गौतमने कहा-"मुने ! न जीता हुआ एक अपना आत्मा ही शत्रु है । कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रु हैं । उन्हें जीतकर नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ।" ।
[८८५-८८६] -“गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह संदह दूर किया । मेरा एक और भी संदेह है ! गौतम ! उस विषय में भी मुझे कहें ।" - "इस संसार में बहुत से जीव पाश से बद्ध हैं । मुने ! तुम बन्धन से मुक्त और लघुभूत होकर कैसे विचरण करते हो ?"
[८८७] गणधर गौतम-"मुने ! उन बन्धनों को सब प्रकार से काट कर, उपायों से विनष्ट कर मैं बन्धनमुक्त और हलका होकर विचरण करता हूँ ।"
[८८८] -“गौतम ! वे बन्धन कौनसे है ?" केशी ने गौतम को पूछा । गौतम ने कहा
[८८९] -“तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह भयंकर बन्धन हैं । उन्हें काट कर धर्मनीति एवं आचार के अनुसार मैं विचरण करता हूँ ।"
[८९०-८९१] -“गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह संदेह दूर किया । मेरा एक और भी संदेह है, गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें ।" - "गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न एक लता है । उसको विष-तुल्य फल लगते हैं । उसे तुमने कैसे उखाड़ा?"
[८९२] गणधर गौतम-“उस लता को सर्वथा काट कर एवं जड़ से उखाड़ कर नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ | अतः मैं विष-फल खाने से मुक्त हूँ ।"
[८९३-८९४] –“वह लता कौनसी है ?" केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-“भवतृष्णा ही भयंकर लता है । उसके भयंकर परिपाक वाले फल लगते हैं । हे महामुने! उसे जड़ से उखाड़कर मैं नीति के अनुसार विचरण करता हूँ ।"
[८९५-८९६] -“गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह संदेह दूर किया । मेरा एक और संदेह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें ।" "घोर प्रचण्ड अनियाँ प्रज्वलित हैं । वे जीवों को जलाती हैं । उन्हें तुमने कैसे बुझाया ?"
[८९७] गणधर गौतम–“महामेघ से प्रसूत पवित्र-जल को लेकर मैं उन अग्नियों का निरन्तर सिंचन करता हूँ । अतः सिंचन की गई अग्नियां मुझे नहीं जलाती हैं ।"
[८९८-८९९] -“वे कौन-सी अग्नियाँ हैं ?" केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-“कषाय अग्नियाँ हैं । श्रुत, शील और तप जल है । श्रुत, शील, तप, रूप जल-धारा से वुझी हुई और नष्ट हुई अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती हैं ।"
[९००-९०१] -“गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा संदेह दूर किया है । मेरा एक और भी संदेह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें ।" -- “यह साहसिक, भयंकर, दुष्ट अश्व दौड़ रहा है । गौतम ! तुम उस पर चढ़े हुए हो । वह तुम्हें उन्मार्ग पर कैसे नहीं ले जाता है ?"
[९०२] गणधर गौतम-“दौड़ते हुए अश्व को मैं श्रुतरश्मि से वश में करता हूँ । मेरे अधीन हुआ अश्व उन्मार्ग पर नहीं जाता है, अपितु सन्मार्ग पर ही चलता है ।"