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________________ उत्तराध्ययन- २३/८६३ १०१ संघ के साथ तिन्दुक वन में आए । गौतम को आते हुए देखकर केशी कुमार श्रमण ने उनकी सम्यक् प्रकार से प्रतिरूप प्रतिपत्ति की गौतम को बैठने के लिए शीघ्र ही उन्होंने प्रासुक पयाल और पाँचवाँ कुश-तृण समर्पित किया । [८६४] श्रमण केशीकुमार और महान् यशस्वी गौतम - दोनों बैठे हुए चन्द्र और सूर्य की तरह सुशोभित हो रहे थे । [८६५-८६६] कौतूहल की अबोध दृष्टि से वहाँ दूसरे सम्प्रदायों के बहुत से परिव्राजक आए और अनेक सहस्र गृहस्थ भी । देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहाँ एक तरह से समागम सा हो गया था । [८६७-८७१] केशी ने गौतम से कहा - "महाभाग ! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ ।” केशीके यह कहने पर गौतम ने कहा- "भन्ते ! जैसी भी इच्छा हो पूछिए । तदनन्तर अनुज्ञा पाकर केशी ने गौतम को कहा - "यह चतुर्याम धर्म है । इसका महामुनि पार्श्वनाथ ने प्रतिपादन किया है । यह जो पंच - शिक्षात्मक धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने कियाहै ।" - " मेधाविन् ! एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं, तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? इन दो प्रकार के धर्मों में तुम्हें विप्रत्यय कैसे नहीं होता ?” तब गौतम ने कहा" तत्त्व का निर्णय जिसमें होता है, ऐसे धर्मतत्त्व की समीक्षा प्रज्ञा करती है ।" [८७२-८७३] “प्रथम तीर्थकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थकर 1. के साधु वक्र और जड होते हैं । बीच के तीर्थंकरो के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं । अतः धर्म दो प्रकार से कहा है ।" - " प्रथम तीर्थकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है । अन्तिम तीर्थकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका. पालन करना कठिन है । मध्यवर्ती तीर्थकरो के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका पालन करना सरल है ।" [८७४-८७६] "गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर कर दिया। मेरा एक और भी संदेह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें ।" - "यह अचेलक धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर धर्म महायशस्वी पार्श्व ने प्रतिपादन किया है ।" - " एक हो कार्य से प्रवृत्त दोनों में भेद का कारण क्या है ? मेधावी ! लिंग के इन दो प्रकारों में तुम्हें कैसे संशय नहीं होता है ?" [८७७-८७९] तब गौतम ने कहा - " विशिष्ट ज्ञान से अच्छी तरह धर्म के साधनों को जानकर ही उनकी अनुमति दी गई है ।" "नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना लोगों की प्रतीति के लिए है । संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और 'मैं साधु हूँ, - यथाप्रसंग इसका बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग का प्रयोजन है ।” “वास्तव में दोनों तीर्थकरों का एक ही सिद्धान्त है कि मोक्ष के वास्तविक साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं ।" [८८०-८८१] – “गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह संदेह तो दूर कर दिया । मेरा एक और भी संदेह है । गौतम ! उस विषय में भी मुझे कहें ।" - " गौतम ! अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच में तुम खड़े हो । वे तुम्हें जीतना चाहते हैं । तुमने उन्हें कैसे जीता ?" [८८२] गणधर गौतम - "एक को जीतने से पाँच जीत लिए गए और पाँच को जीत
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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