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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
इसलिए खाते समय इकट्ठे करूँगा ।' ऐसा सोचकर दोनों द्रव्य अलग-अलग ले । फिर उपाश्रय में आ-कर खाते समय दो द्रव्य मिलाए । पात्र संयोजना - अलग - अलग द्रव्य पात्र में मिलाकर खाए । हस्त संयोजना - नीवाला हाथ में फिर उस पर दुसरी चीज डालकर खाए । मुख संयोजना - मुँह में नीवाला डाले फिर उपर से प्रवाही या दुसरी चीज लेकर यानि मंड़क आदि मुँह में ले फिर गुड़ आदि मुँह में ले ऐसे दो चीज मिलाकर खाए ।
___ संयोजना करने से होनेवाले दोष - संयोजना रस की आसक्ति करनेवाली है आत्मा ज्ञानवरणीय आदि कर्म के बँध करता है । संसार बढ़ता है । भवान्तर में जीव को अशाता होती है । अनन्तकाल तक वेदन योग्य अशुभ कर्म बँधता है । इसलिए साधु ने बाह्य या अभ्यंतर संयोजना नहीं करनी चाहिए । अपवाद - हर एक संघाट्टक को गोचरी ज्यादा आ गई हो, खाने के बाद भी आहार बचा हो तो परठवना न पड़े इसलिए दो द्रव्य मिलाकर खाए तो दोष नहीं है । ग्लान के लिए द्रव्य संयोजना कर शकते है । राजपुत्रादि हो और अकेला आहार गले से उतर न रहा हो तो संयोजना करे । नवदीक्षित हो परिणत न हआ हो तो संयोजना करे । या रोगादि के कारण से संयोजना करने में दोष नहीं है ।
[६८४-६९६] प्रमाण दोष जो आहार करने से ज्ञानाभ्यास वैयावच्च आदि करने में और संयम के व्यापार में उस दिन और दुसरे दिन और आहार खाने का समय न हो तब तक शारीरिक बल में हानि न पहुँचे उतना आहार प्रमाणसर कहलाता है । नाप से ज्यादा आहार खाने से प्रमाणातिरिक्त दोष बने और उससे संयम और शरीर को नुकशान हो । सामान्य से पुरुष के लिए बत्तीस नीवाले आहार और स्त्री के लिए अट्ठाईस नीवाले आहार नापसर है ।
कुक्कुटी - कुकड़ी के अंड़े जितना एक नीवाला गिने । कुक्कुटी दो प्रकार की । १. द्रव्य कुक्कुटी और २. भाव कुक्कुटी । द्रव्य कुक्कुटी - दो प्रकार से १. उदर कुक्कुटी २. गल कुक्कुटी । उदरकुक्कुटी - जितना आहार लेने से पेट भरे उतना आहार । गल कुक्कुटी - पेट के लिए काफी आहार का बत्तीसवाँ हिस्सा या जितना नीवाला मुँह में डालने से मुँह विकृत न बने, उतना नीवाला या सरलता से मुँह में रख शके उतने आहार का नीवाला । भाव कुक्कुटी - जितना आहार खाने से (कम नहीं - ज्यादा भी नहीं) शरीर में जोश रहे, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि हो उतना आहार, उसका बतीसवा हिस्सा एक नीवाला कहलाता है ।
बत्तीस नीवाले में एक, दो, तीन नीवाले कम करने से यावत् सोलह नीवाले प्रमाण आहार करे यावत् उसमें से भी कत करनेसे आँठ नीवाले जितना आहार करे । वो यात्रामात्र (गुजारे के लिए काफी) आहार कहलाता है ।
साधुओ को कैसा आहार खाना चाहिए ? जो हितकारी - द्रव्य से अविरुद्ध, प्रकृति को जाँचनेवाला और एषणीय - दोष रहित आहार करनेवाला, मिताहारी - प्रमाणसर बत्तीस नीवाले प्रमाण आहार करनेवाला, अल्पाहारी - भूख से कम आहार करनेवाले होते है, उनका वैद्य इलाज नहीं करते । यानि उनको बिमारी नहीं लगती ।
हितकारी और अहितकारी आहार का स्वरूप - दही के साथ तेल, दुध के साथ दहीं या काजी अहितकारी है । यानि शरीर को नुकशान करता है । अहितकारी आहार लेने से सारी बिमारी उत्पन्न होती है । दूध और दही और तेल या दहीं और तेल के साथ खाने से कोढ़ की बिमारी होती है, समान हिस्से में खाने से झहर समान बनता है । इसलिए अहितकारी आहार का त्याग करना और हितकारी आहार लेना चाहिए ।
मित्त आहार का स्वरूप - अपने उदर में छ हिस्सों की कल्पना करना । उसमें शर्दी,