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आवस्सयं-३/१०
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अधोकाय यानि कि आपके चरण को मैं अपनी काया से स्पर्श करता हूँ । इसलिए आपको जो कुछ भी तकलीफ हो उसकी क्षमा देना । अल्पग्लानीवाले आपके दिन सुखशान्ति से व्यतित हुआ है ? आपको संयम-यात्रा वर्तती है ? आपको इन्द्रिय और कषाय उपघात रहित वर्तते है ? हे क्षमाश्रमण ! दिन के दोहरान किए गए अपराध को मैं खमाता हूँ । आवश्यक क्रिया के लिए अब मैं अवग्रह के बाहर जाता हूँ । (ऐसा बोलकर शिष्य अवग्रह के बाहर नीकलता है ।)
दिन के दोहरान आप क्षमाश्रमण की कोई भी आशातना की हो उससे मैं वापस लौटता हूँ । मिथ्याभाव से हुइ आशातना के द्वारा मन, वचन, काया की दुष्ट प्रवृत्ति के द्वारा की गइ आशातना से, क्रोध, मान, माया, लोभ की वृत्ति से होनेवाली आशातना से, सर्वकाल सम्बन्धी - सभी तरह के मिथ्या उपचार के द्वारा उन सभी तरह के धर्म के अतिक्रमण से होनेवाली आशातना से जो कुछ अतिचार हुआ हो उससे वो क्षमाश्रमण मैं वापस लौटता हूँ। उस अतिचरण की नींदा करता हूँ । आपके सामने उस अतिचार की गर्दा करता हूँ । और उस अशुभ योग में प्रवर्ते मेरे भूतकालीन आत्म पर्याय का त्याग करता हूँ।
अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-४-प्रतिक्रमण) [१०-१] (नमस्कार मंत्र की) व्याख्या पूर्व-सूत्र-१-अनुसार जानना । [११] “करेमि भंते" की व्याख्या - पूर्व सूत्र-२ समान जानना ।
[१२] मंगल-यानि संसार से मुझे पार उतारे वो या जिससे हित की प्राप्ति हो वो या जो धर्म को दे वो (ऐसे 'मंगल' - चार है) अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररुपित धर्म ।
(यहाँ और आगे के सूत्र : १३, १४ मे ‘साधु' शब्द के अर्थ में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणि आदि सबको समज लेना । और फिर केवली प्ररूपित धर्म से श्रुत धर्म और चारित्र धर्म दोनों को सामिल समजना ।
[१३] क्षायोपशमिक आदि भाव रूप ‘भावलोक' में चार को उत्तम बताया है । अहँत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म ।
अहँतो को सर्व शुभ प्रकृति का उदय है । यानि वो शुभ औदयिक भाव में रहते है । इसलिए वो भावलोक में उत्तम है । सिद्ध चौदह राजलोक को अन्त में मस्तक पर बिराजमान होते है । वो क्षेत्रलोक में उत्तम है । साधु श्रुतधर्म आराधक होने से क्षायोपशमिक भाव से
और रत्नत्रय आराधना से भावलोक में उत्तम है । केवलि प्ररूपित धर्म में चारित्र धर्म अपेक्षा से क्षायिक और मिश्र भाव की उत्तमता रही है ।
[१४] शरण-यानि सांसारिक दुःख की अपेक्षा से रक्षण पाने के लिए आश्रय पाने की पवृत्ति । ऐसे चार शरण को मैं अंगीकार करता हूँ । मैं अरिहंत का-सिद्ध का - साधु का और केवली भगवंत के बताए धर्म का शरण अंगीकार करता हूँ।
[१५] मैं दिवस सम्बन्धी अतिचार का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, यह अतिचार सेवन काया से - मन से - वचन से (किया गया हो), उत्सूत्र भाषण-उन्मार्ग सेवन से (किया हो), अकल्प्य या अकरणीय (प्रवृत्ति से किया हो) दुर्ध्यान या दुष्ट चिन्तवन से (किया हो) अनाचार सेवन से, अनीच्छनीय श्रमण को अनुचित (प्रवृत्ति से किया हो)।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रुत या सामायिक में (अतिक्रमण हुआ हो), तीन गुप्ति में प्रमाद