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________________ ११८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद हे भगवंत (पूज्य) मैं उस पाप का (मैंने सेवन की हुई अशुभ प्रवृत्ति का) प्रतिक्रमण करता हूँ (यानि उससे निवृत्त होता हूँ ।) मेरे आत्मा की साक्षी में निंदा करता हूँ । (यानि उस अशुभ प्रवृत्ति को झूठी मानता हूँ) और आपके सामने 'वो पाप है' इस बात का एकरार करता हूँ । गर्दा करता हूँ । (और फिर वो पाप-अशुभ प्रवृत्ति करनेवाले मेरे-भूतकालिन पर्याय समान) आत्मा को वोसिराता हूँ । सर्वथा त्याग करता हूँ । (यहाँ ‘पड़िक्कमामि' आदि शब्द से भूतकाल के 'करेमि' शब्द से वर्तमान काल के और ‘पच्चक्खामि' शब्द से भविष्यकाल के ऐसे तीन समय के पाप व्यापार का त्याग होता है ।) अध्ययन-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-२-चतुर्विंशतिस्तव) [३] लोक में उद्योत करनेवाले (चौदह राजलोक में रही सर्व वस्तु का स्वरूप यथार्थ तरीके से प्रकाशनेवाले) धर्मरूपी तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले, रागदेश को जीतनेवाले, केवली चोबीस तीर्थकर का और अन्य तीर्थंकर का मैं कीर्तन करूँगा । [४] ऋषभ और अजीत को, संभव अभिनन्दन और सुमित को, पद्मप्रभु सुपार्श्व (और) चन्द्रप्रभु सभी जिन को मैं वंदन करता हूँ ।। [५] सुविधि या पुष्पदंत को, शीतल श्रेयांस और वासुपूज्य को, विमल और अनन्त (एवं) धर्म और शान्ति जिन को वंदन करता हूँ । [६] कुंथु, अर और मल्लि, मुनिसुव्रत और नमि को, अरिष्टनेमि पार्श्व और वर्धमान (उन सभी) जिन को मैं वंदन करता हूँ । (इस तरह से ४-५-६ तीन गाथा द्वारा ऋषभ आदि चौबीस जिन की वंदना की गइ है ।) [७] इस प्रकार मेरे द्वारा स्तवना किये हुए कर्मरूपी कूड़े से मुक्त और विशेष तरह से जिनके जन्म-मरण नष्ट हुए है यानि फिर से अवतार न लेनेवाले चौबीस एवं अन्य जिनवरतीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हो । [८] जो (तीर्थंकर) लोगो द्वारा स्तवना किए गए, वंदन किए गए और पूजे गए है । लोगो में उत्तमसिद्ध है । वो मुझे आरोग्य (बिमारी न हो ऐसे हालात), बोधि (ज्ञानदर्शन और चारित्र का बोध) तथा सवोत्कृष्ट समाधि दे । [९] चन्द्र से ज्यादा निर्मल, सुरज से ज्यादा प्रकाश करनेवाले और स्वयं भूरमण समुद्र से ज्यादा गम्भीर ऐसे सिद्ध (भगवंत) मुझे सिद्धि (मोक्ष) दो । अध्ययन-२-का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-३-वंदन) [१०] (शिष्य कहता है) हे क्षमा (आदि दशविध धर्म युक्त) श्रमण, (हे गुरुदेव !) आपको मैं इन्द्रिय और मन की विषय विकार के उपघात रहित निर्विकारी और निष्पाप प्राणातिपात आदि पापकारी प्रवृत्ति रहित काया से वंदन करना चाहता हूँ । मुझे आपकी मर्यादित भूमि में (यानि साड़े तीन हाथ अवग्रह रूप-मर्यादा के भीतर) नजदीक आने की (प्रवेश करने की) अनुज्ञा दो । निसीही (यानि सर्व अशुभ व्यापार के त्यागपूर्वक) (यह शब्द बोलकर अवग्रह में प्रवेश करके फिर शिष्य बोले)
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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