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नमो नमो निम्मलदंसणस्स ४० आवस्सयं मूलसूत्र-१-हिन्दी अनुवाद
( अध्ययन-१-सामायिक ) [१] अरिहंत को नमस्कार हो, सिद्ध को नमस्कार हो, आचार्य को नमस्कार हो, उपाध्याय को नमस्कार हो, लोक में रहे सर्व साधु को नमस्कार हो, इस पाँच (परमेष्ठि) को किया गया नमस्कार सर्व पाप का नाशक है । सर्व मंगल में प्रथम (उत्कृष्ट) मंगल है ।
अरिहंत शब्द के लिए तीन पाठ है । अरहंत, अरिहंत और अरुहंत, यहाँ अरहंत शब्द का अर्थ है - जो वंदन नमस्कार को, अष्ट महाप्रातिहार्थ पूजा और सत्कार को और सिद्धि गमन के योग्य है इसलिए उन्हें 'अरहंत' कहते है ।
अरिहंत - अप्रशस्त भाव में प्रवृत्त इन्द्रिय काम-भोग की इच्छा, क्रोध आदि कषाय, बाईस तरह के परिषह, शारीरिक-मानसिक दर्द और उपसर्ग समान भाव शत्रु को हरनेवाला यानि उस पर विजय पानेवाला होने से 'अरिहंत' है ।
अरूहंत - कर्म समान बीज जल जाने से जिसे फिर से जन्म लेने के समान अंकुर फूटे नहीं है इसलिए अरुहंत ।
सिद्ध : सर्व दुःख से सर्वथा पार हो गए, जन्म, जरा, मरण और कर्म के बंधन से अलग हुए हो और किसी भी तरह के अंतराय रहित ऐसे शाश्वत सुख का अहेसास करनेवाले होने से सिद्ध कहलाते है ।
आचार्य : ज्ञानावरणीय आदि पाँच तरह के आचार का खुद आचरण करनेवाले, प्रयत्नपूर्वक दुसरों के सामने उस आचार को प्रकाशनेवाले और शेक्ष आदि को उस पाँच तरह के आचार दिखानेवाले होने से आचार्य कहलाते है ।
उपाध्याय - जिनेश्वर परमात्मा की उपदिष्ट द्वादशांगी अर्थात् स्वाध्याय के उपदेशक होने से उपाध्याय कहलाते है ।
साधु : मानव लोक में रहे सभी ‘साधु' यानि जो आत्महित को और परहित को या मोक्ष के अनुष्ठान की साधना करे या निर्वाण साधक योग से साधना करे वो साधु ।
इस पाँच के समूह को किया गया नमस्कार । सर्व पाप यानि सभी अशुभ कर्म का प्रकृष्ट नाशक है ।
सभी जीव के हित के लिए प्रवर्ते वो मंगल ऐसे द्रव्य और भाव, लौकिक और लोकोत्तर आदि सभी तरीके के मंगल के लिए सर्वोत्तम या उत्कृष्ट मंगल है ।
[२] हे भगवंत ! (हे पूज्य !) में (आपकी साक्षी में) सामायिक का स्वीकार करता हूँ यानि समभाव की साधना करता हूँ । जिन्दा हूँ तब तक सर्व सावध (पाप) योग का प्रत्याख्यान करता हूँ । यानि मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति न करने का नियम करता हूँ । (जावज्जीव के लिए) मन से, वचन से, काया से (उस तरह से तीन योग से पाप व्यापार) मैं खुद न करूँ, दुसरों के पास न करवाऊँ या उसकी अनुमोदना न करूँ ।