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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
३३ वीरस्तव
प्रकिर्णक-१०- हिन्दी अनुवाद
[१] जगजीव बन्धु, भविजन रूपी कुमुद को विकसानेवाला, पर्वत समान धीर ऐसे वीर जिनेश्वर को नमस्कार करके उन्हें प्रगट नाम के द्वारा मैं स्तवन करूँगा ।
[२-३] अरुह, अरिहंत, अरहंत, देव, जिन, वीर, परम करुणालु, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, समर्थ, त्रिलोक के नाथ । वीतराग केवलि, त्रिभुवनगुरु, सर्व त्रिभुवन वरिष्ठ भगवन् तिर्थंकर, शक्र द्वारा नमस्कार किए गए, जिनेन्द्र तुम जय पाओ ।
[४] श्री वर्धमान, हरि, हर, कमलासन प्रमुख नाम से जड़मति ऐसा मैं सूत्र के अनुसार यथार्थ गुण द्वारा स्तवन करूँगा ।
[५] भवबीज समान अंकुर से हुए कर्म को ध्यान समान अग्नि द्वारा जलाकर फिर से भव समान गहन वन मे न ऊँगने देनेवाले हो इसलिए हे नाथ ! तुम 'अरूह' हो ।
[६] तिर्यंच के घोर उपसर्ग, परीपह, कषाय पेदा करनेवाले शत्रु को हे नाथ ! तुमने पूरी तरह से वध कर दिया है इसलिए तुम अरिहंत हो ।।
[७] उत्तम ऐसे वंदन, स्तवन, नमस्कार, पूजा, सत्कार और सिद्धि गमन की योग्यता वाले हो जिस कारण से तुम ‘अरहंत' हो ।
[८] देव, मानव, असुर प्रमुख की उत्तम पूजा को तुम योग्य हो, धीरज और मान से छोड़े हुए हो इसलिए हे देव तुम अरहंत हो ।
[९] रथ-गाड़ी निदर्शित अन्य संग्रह या पर्वत की गुफा आदि तुमसे कुछ दूर नहीं है इसलिए हे जिनेश्वर तुम अरहंत हो ।
[१०] जिसने उत्तम ज्ञान द्वारा संसार मार्ग का अंत करके, मरण को दूर करके निज स्वरूप समान संपत्ति पाई है इसलिए तुम अरहंत हो ।
[११] मनोहर या अमनोहर शब्द आप से छिपे नहीं है और फिर मन और काया के योग के सिद्धांत से रंजित किया है इसलिए तुम अरहंत हो ।
[१२] देवेन्द्र और अनुत्तर देव की समर्थ पूजा आदि के योग्य हो, करोडो मर्यादा का अंत करनेवाले को शरण के योग्य हो इसलिए अरहंत हो ।
[१३] सिद्धि के संग से दुसरे मोह शत्रु के विजेता हो, अनन्त सुख, पुण्य परिणति से परिवेष्टित हो इसलिए देव हो ।
_ [१४] राग आदि वैरी को दूर करके, दुःख और क्लेश का समाधान किया है यानि निवारण किया है । गुण आदि से शत्रु को आकर्षित करके जय किया है इसलिए हे जिनेश्वर! तुम देव हो ।
[१५] दुष्ट ऐसे आठ कर्म की ग्रंथि को प्राप्त धन समूह को दूर किया है उत्तम मल्लसमूह को आकलन करके तप से शुद्ध किया । मतलब तप द्वारा कर्म समान मल्ल को खत्म