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गच्छाचार-८७
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उसे गच्छ मानना चाहिए ।
[८८] जिस गच्छ में सुवर्ण, चाँदी, धन, धान्य, काँसु, ताम्र, स्फटिक, बिस्तर आदि शयनीय, कुर्शी आदि आसन और सच्छिद्र चीज का उपभोग होता हो
[८९] और फिर जिस गच्छ में मुनि को उचित श्वेतवस्त्र छोडकर लाल, हरे, पीले वस्त्र का इस्तेमाल होता हो उस गच्छ में मर्यादा कहाँ से हो ?
[१०] और फिर जिस गच्छ में किसी भी कारण से किसी गृहस्थ का दिया दुसरों का भी सोना, चाँदी, अर्ध निमेषमात्र भी हाथ से न छूए ।
[९१] जिस गच्छ में आर्या का लाया हुआ विविध उपकरण और पात्रा आदि साधु बिना कारण भी भुगते उसे कैसा गच्छ कहना ?
[१२] बल और बुद्धि को बढ़ानेवाला, पुष्टिकारक, अति दुर्लभ ऐसा भी भैषज्य साध्वी का प्राप्त किया हुआ साधु भुगते, तो उस गच्छ में मर्यादा कहाँ से हो ?
[ ९३] जिस गच्छ में अकेला साधु, अकेली स्त्री या साध्वी साथ रहे, उसे हे गौतम! हम अधिक करके मर्यादारहित गच्छ कहते है
[१४] दृढचारित्रवाली, निर्लोभी, ग्राह्यवचना, गुण समुदायवाली ऐसी लेकिन महत्तरा साध्वी को जिस गच्छ में अकेला साधु पढ़ाता है, वो अनाचार है, गच्छ नहीं ।
[१५] मेघ की गर्जना - अश्व हृदयगत वायु और विद्युत की तरह जैसे दुग्राह्य गूढ़ हृदयवाली आर्याए जिस गच्छ में अटकाव रहित अकार्य करते है
[९६] और जिस गच्छ के भीतर भोजन के वक्त साधु की मंडली में साध्वी आती है, वो गच्छ नहीं लेकिन स्त्री राज्य है ।
[९७] सुख में रहे पंगु मानव की तरह जो मुनि के कषाय दुसरों के कषाय द्वारा भी उद्दीपन न हो, उसे हे गौतम गच्छ मानना चाहिए ।
[९८] धर्म के अन्तराय से भय पाए हुए और संसार की भीतर रहने से भय पानेवाले मुनि, अन्य मुनि के क्रोध आदि कषाय को न उदीरे, उसे गच्छ मान ।
[ ९९ ] शायद किसी कारण से या बिना कारण मुनिओं के कषाय का उदय हो और उदय को रोके और तदनन्तर खमाए, उसे हे गौतम ! गच्छ मान ।
[१००] दान, शील, तप और भावना, इन चार प्रकार के धर्म के अन्तराय से भय पानेवाले गीतार्थ साधु जिस गच्छ में ज्यादा हो उसे हे गौतम ! गच्छ कहा है ।
[१०१] और फिर हे गौतम! जिस गच्छ में चक्की, खंडणी, चूल्हा, पानेहारा और झाडु इस पाँच वधस्थान में से कोई एक भी हो, तो वो गच्छ का मन, वचन, काया से त्याग करके अन्य अच्छे गच्छ में जाना चाहिए ।
[१०२] खंड़ना आदि के आरम्भ में प्रवर्ते हुए और उज्ज्वल वेश धारण करनेवाले गच्छ की सेवा न करना लेकिन जो गच्छ चारित्र गुण से उज्ज्वल हो उसकी सेवा करना चाहिए । [१०३] और फिर जिस गच्छ के भीतर मुनि क्रय-विक्रय आदि करें- करवाए, अनुमोदन करे, वो मुनि को संयम भ्रष्ट मानना चाहिए । हे गुणसागर गौतम ! वैसे लोगों को विष की
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