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________________ २३८ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद से प्ररूपा हुआ उत्तम धर्म उसके धर्म की सोच समान भावना, १२. करोड़ जन्मान्तर में दुर्लभ ऐसी बोधि दुर्लभ भावना यह आदि स्थानान्तर में जो प्रमाद करे उसे चारित्र कुशील जानना । [ ६४५] तप कुशील दो तरह के एक बाह्य तप कुशील और दुसरा अभ्यन्तर तप कुशील । उसमें जो कोई मुनि विचित्र इस तरह का दीर्घकाल का उपवासादिक तप, उणोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, काय-क्लेश, अंगोपांग सिकुड़े रखने समान संलीनता । इस छ तरह के बाह्य तप में शक्ति होने के बाद भी जो उद्यम नहीं करते, वो बाह्य तप कुशील कहलाते है । [६४६-६४७] बार तरह की भिक्षु प्रतिमा वो इस प्रकार - एक मासिकी, दो मासिकी, तीन मासिकी, चार मासिकी, पाँच मासिकी, छ मासिकी, साँत मासिकी ऐसे साँत प्रतिमा । आँठवी साँत अहोरात्र की, नौवीं साँत अहोरात्र की, दशवीं साँत अहोरात्र की, ग्यारहवीं एक अहोरात्र की, बारहवीं एक रात्रि की ऐसी बारह भिक्षु प्रतिमा है । [६४८] अभिग्रह- द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । उसमें द्रव्य अभिग्रह में ऊँबाले ऊँड़द आदि द्रव्य ग्रहण करना, क्षेत्र से गाँव में या गाँव के बाहर ग्रहण करना, काल से प्रथम आदि पोरिस में ग्रहण करना, भाव से क्रोधादिक कषायवाला जो मुजे दे वो ग्रहण करूँगा इस प्रकार उत्तरगुण संक्षेप से समास किए । ऐसा करने से चारित्राचार भी संक्षेप से पूर्ण हुआ । तपाचार भी संक्षेप से उसमें आ गया । और फिर वीर्याचार उसे कहते है कि जो इस पाँच आचार में न्युन आचार का सेवन न करे । इन पाँच आचार में जो किसी अतिचार में जान-बूझकर अजयणा से, दर्प से, प्रमाद से, कल्प से, अजयणा से या जयणा से जिस मुताबिक पाप का सेवन किया हो उस मुताबिक गुरु के पास आलोचना करके मार्ग जाननेवाले गीतार्थ गुरु जो प्रायश्चित् दे उसे अच्छी तरह आचरण करे । इस तरह अठ्ठारह हजार शील के अंग में जिस पद में प्रमाद सेवन किया हो, उसे उस प्रमाद दोष से कुशील समजना चाहिए । [६४९] उस प्रकार ओसन्ना के लिए जानना । वो यहाँ हम नहीं लिखते । ज्ञानादिक विषयक पासत्था, स्वच्छंद, उत्सूत्रमार्गगामी, शबल को यहाँ ग्रंथ विस्तार के भय से नहीं लिखते । यहाँ कहीं कहीं जो-जो दुसरी वाचना हो वो अच्छी तरह से शास्त्र का सार जिसने जाना है, वैसे गीतार्थवर्य को रिश्ता जोड़ना चाहिए । क्योंकि पहले आदर्श प्रत में काफी ग्रन्थ विप्रनष्ट हुआ है । वहाँ जो-जो सम्बन्ध होने के योग्य जुड़ने की जुरूर हुई वहाँ कई श्रुतधर ने इकट्ठे होकर अंग- उपांग सहित बारह अंग रूप श्रुत समुद्र में से बाकी अंग, उपांग, श्रुतस्कंध, अध्ययन, उद्देशा में से उचित सम्बन्ध इकट्ठे करके जो किसी सम्बन्ध रखते थे, वो यहाँ लिखे है, लेकिन खुद कहा हुआ कुछ भी रखा नहीं है । [६५०-६५२] अति विशाल ऐसे यह पाँच पाप जिसे वर्जन नहीं किया, वो हे गौतम ! जिस तरह सुमति नाम के श्रावक ने कुशील आदि के साथ संलाप आदि पाप करके भव में भ्रमण क्रिया वैसे वो भी भ्रमण करेंगे ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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