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महानिशीथ-३/-/६३२
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मिश्रजात, ५. स्थापना, ६. प्राभृतिका, ७. प्रादुष्करण, ८. क्रीत, ९. प्रामित्यक, १०. परावर्तित, ११. अभ्याहत, १२. उद्भिन्न, १३. मालोपहृत, १४. आछिद्य, १५. अतिसृष्ट, १६. अध्यव पूरक-ऐसे पिंड तैयार करने में सोलह दोष लगते है ।
[६३३-६३५] उत्पादन के सोलह दोष इस प्रकार बताए है । १. धात्रीदोष, २. दुतिदोष, ३. निमित्तदोष, ४. आजीवकदोष, ५. वनीपकदोष, ६. चिकित्सादोष, ७. क्रोधदोष, ८. मानदोष, ९. मायादोष, १०. लोभ दोष, यह इस दोष और ११. पहले या बाद में होनेवाले परिचय का दोष, १२. विद्यादोष, १३. मंत्रदोष, १४. चूर्णदोष, १५. योगदोष और १६. मूलकर्मदोष-ऐसे उत्पादन के सोलह दोष लगते है ।
[६३६-६३७] एषणा के दस दोष इस प्रकार जानना-१. शक्ति, २. म्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४. पिहित, ५. संहृत, ६. दायक, ७. उन्मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्त, १०. छर्दित।
[६३८] उसमें उद्गमदोष गृहस्थ से उत्पन्न होते है । उत्पादन के दोष साधु से उत्पन्न होनेवाले और एषणा दोष गृहस्थ और साधु दोनों से उत्पन्न होनेवाले है ।
मांडली के पाँच दोष इस प्रकार जानना-१. संयोजना, २. प्रमाण से अधिक खाना, ३. अंगार, ४. घुम, ५. कारण अभाव-ऐसे ग्रासेसणा के पाँच दोष होते है । उसमें संयोजना दोष दो तरह के-१. उपकरण सम्बन्धी और २. भोजन पानी सम्बन्धी । और फिर उन दोनों के भी अभ्यन्तर और बाह्य । ऐसे दो भेद है
[६३१] प्रमाण-बत्तीस कवल प्रमाण । आहार कुक्षिपूरक माना जाता है । खाने में अच्छे लगनेवाले भोजनादिक राग से खाए तो उसमें ईंगाल दोष और अनचाहे में द्वेष हो तो धूम्र दोष लगता है ।
[६४०-६४३] कारणाभाव दोष में समजो कि क्षुधा वेदना सह न शके, कमजोर शरीर से वैयावच्च न हो शके, आँख की रोशनी कम हो जाए और इरियासमिति में क्षति हो । संयम पालन के लिए और जीव बचाने के लिए, धर्मध्यान करने के लिए, इस कारण के लिए भोजन करना कल्पे । भूख समान कोई दर्द नहीं इसलिए उसकी शान्ति के लिए भोजन करना । भूख से कमजोर देहवाला वैयावच्च करने में समर्थ नहीं हो शकता । इसलिए भोजन करना । इरियासमिति अच्छी तरह से न खोजे, प्रेक्षादिक संयम न सँभाल शके, स्वाध्यायादिक करने की शक्ति कम हो जाए, बल कम होने लगे, धर्मध्यान न कर शके इसलिए साधु को इस कारण से भोजन करना चाहिए । इस प्रकार पिंड़ विशुद्धि जानना ।
[६४४] अब पाँच समिति इस प्रकार बताई है-ईयासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभंड-मत्तनिक्षेपणा समिति और उच्चार-पासवण खेल सिंधाणजल्लपारिष्ठापनिका समिति और तीन गुप्ति, मन गुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति और बारह भावना वो इस प्रकार-१. अनित्यभावना, २. अशरण भावना, ३. एकत्वभावना, ४. अन्यत्वभावना, ५. अशुचिभावना, ६. विचित्र संसारभावना, ७. कर्म के आश्रव की भावना, ८. संवर भावना, ९. निर्जराभावना, १०. लोक विस्तार भावना, ११. तीर्थंकर ने अच्छी तरह से बताया हुआ और अच्छी तरह