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महानिशीथ-३/-/४८८
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१३. लेपकर्म विद्या पढ़ानेवाले रूप कुशील ।
१४. वमन विरेचन के प्रयोग करना, करवाना शीखलाना, कई तरह की वेलड़ी उसकी जड़ नीकालने के लिए कहना, प्रेरणा देना, वनस्पति-वेल तोड़ना, कटवाने के समान कई दोषवाली वैदक विद्या के शस्त्र अनुसार प्रयोग करना, वो विद्या पढ़ना, पढ़ाना यानि रूप कुशील ।
१५. उस प्रकार अंजन प्रयोग । १६. योगचूर्ण, १७. सुवर्ण धातुवाद, १८. राजदंडनीति १९. शास्त्र अस्त्र अग्नि बीजली पर्वत, २०. स्फटिक रत्न, २१. रत्न की कसौटी, २२. रस वेध विषयक शास्त्र, २३. अमात्य शिक्षा, २४. गुप्त तंत्र-मंत्र, २५. काल देशसंधि करवाना ।
२६. लड़ाई करवाने का उपदेश । २७. शस्त्र, २८. मार्ग, २९. जहाज व्यवहार । आदि यह निरुपण करनेवाले शास्त्र का अर्थ कथन करना करवाना यानि अप्रशस्त ज्ञान कुशील । इस प्रकार पाप-श्रुत की वाचना, विचारणा, परावर्तन, उसकी खोज, संशोधन, उसका श्रवण करना अप्रशस्त ज्ञान कुशील कहलाता है ।
[४८९] उसमें जो सुप्रशस्तज्ञानकुशील है वो भी दो तरह के जान लेने आगम से और नोआगम से । उसमें आगम से सुप्रशस्त ज्ञान ऐसे पाँच तरह के ज्ञान की या सुप्रशस्तज्ञान धारण करनेवालो की आशातना करनेवाला यानि सुप्रशस्तज्ञान कुशील ।
[४९०] नोआगम से सुप्रशस्त ज्ञान कुशील आँठ तरह के -अकाल सुपशस्त ज्ञान पढ़े, पढ़ाए, अविनय से सुप्रशस्त ज्ञान ग्रहण करे, करवाए, अबहुमान से सुप्रशस्त ज्ञान पठन करे, उपधान किए बिना सुप्रशस्त ज्ञान पढ़ना, पढ़ाना, जिसके पास सुप्रशस्त सूत्र अर्थ पढ़े हो उसे छिपाए, वो स्वर-व्यंजन रहित, कम अक्षर, ज्यादा अक्षरवाले सूत्र पढ़ना, पढ़ाना, सूत्र, अर्थ विपरीतपन से पढ़ना, पढ़ाना । संदेहवाले सूत्रादिक पढ़ना-पढ़ाना ।
[४९१] उसमें यह आँठ तरह के पद को जो किसी उपधान वहन किए बिना सुप्रशस्त ज्ञान पढ़े या पढ़ाए, पढ़नेवाले या पढ़ानेवाले को अच्छे मानकर अनुमोदना करे वो महापाप कर्म सुप्रशस्त ज्ञान की महा आशातना करनेवाला होता है ।
[४९२] हे भगवंत ! यदि ऐसा है तो क्या पंच मंगल के उपधान करने चाहिए ? हे गौतम ! प्रथम ज्ञान और उसके बाद दया यानि संयम यानि ज्ञान से चारित्र-दया पालन होता है । दया से सर्व जगत के सारे जीव-प्राणी-भूत-सत्त्व को अपनी तरह देखनेवाला होता है । जगत के सर्व जीव, प्राणी, भूत सत्त्व को अपनी तरह सुख-दुःख होता है, ऐसा देखनेवाला होने से वो दुसरे जीव के संघट्ट करने के लिए परिताप या किलामणा-उपद्रव आदि दुःख उत्पन्न करना, भयभीत करना, त्रास देना इत्यादिक से दूर रहता है । ऐसा करने से कर्म का आश्रव नहीं होता । कर्म का आश्रव बन्द होने से कर्म आने के कारण समान आश्रव द्वार बन्द होते है । आश्रव के द्वार बन्द होने से इन्द्रिय का दमन और आत्मा में उपशम होता है ।
इसलिए शत्रु और मित्र के प्रति समानभाव सहितपन होता है । शत्रु मित्र के प्रति समानभाव सहितपन से रागद्वेष रहितपन उससे क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता होने से कषाय