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महानिशीथ-१/-/१४५
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[१४५-१४८] उस प्रकार शुद्ध आलोचना देकर-(पाकर) अनन्त श्रमणी निःशल्य होकर, अनादि काल में हे गौतम ! केवलज्ञान पाकर सिद्धि पाकर, क्षमावती-इन्द्रिय का दमन करनेवाली संतोषकर-इन्द्रिय को जीतनेवाली सत्यभाषी-त्रिविध से छ काय के समारम्भ से विरमित तीन दंड़ के आश्रव को रोकनेवाली - पुरुषकथा और संग की त्यागी-पुरुष के साथ संलाप और अंगोपांग देखने से विरमित-अपने शरीर की ममता रहित महायशवाली-द्रव्यक्षेत्र काल भाव प्रति अप्रतिबद्ध यानि रागरहित, औरतपन, गर्भावस्था और भवभ्रमण से भयभीत इस तरह की भावनावाली (साध्वीओ को) आलोचना देना ।
[१४९-१५१] जिस तरह इस श्रमणीओ ने प्रायश्चित किया उस तरह से प्रायश्चित करना, लेकिन किसी को भी माया या दंभ से आलोयणा नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से पापकर्म की वृद्धि होती है...अनादि अनन्त काल से माया-दंभ-कपट दोष से आलोचना करके शल्यवाली बनी हुई साध्वी, हुकुम उठाना पड़े जैसा सेवकपन पाकर परम्परा से छठ्ठी नारकी में गई है ।
[१५२-१५३] कुछ साध्वी के नाम कहता हूँ उसे समज-मान कि जिन्होंने आलोचना की है । लेकिन (माया-कपट समान) भाव-दोष का सेवन करने से विशिष्ट तरह से पापकर्ममल से उसका संयम और शील के अंग खरडाये हुए है...उस निःशल्यपन की प्रशंसा की है जो पलभर भी परम भाव विशुद्धि रहित न हो ।
[१५४-१५५] इसलिए हे गौतम ! कुछ स्त्रीयों को अति निर्मल, चित्त-विशुद्धि भवान्तर में भी नहीं होती कि जिससे वो निःशल्य भाव पा शके...कुछ श्रमणी छठ्ठ-अठुम, चार उपवास, पाँच उपवास इस तरह बारबार उपवास से शरीर सूखा देते है तो भी सराग भाव की आलोचना करती नहीं-छोडती नहीं ।
[१५६-१५७] अनेक प्रकार के विकल्प देकर कल्लोल श्रेणी तरंग में अवगाहन करनेवाले दुःख से करके अवगाह किया जाए, पारश पा शके वैसे मन समान सागर में विचरनेवाले को जानना नामुमकीन है । जिसके चित्त स्वाधीन नहीं वो आलोचना किस तरह दे (ले) शके ? ऐसे शल्यवाले का शल्य जो उद्धरते है वो पल-पल वंदनीय है ।
[१५८-१६०] स्नेह-राग रहितपन से, वात्सल्यभाव से, धर्मध्यान में उल्लसित करनेवाले, शील के अंग और उत्तम गुण स्थानक को धारण करनेवाला स्त्री और दुसरे कईं बंधन से मुक्त, गृह, स्त्री आदि को कैदखाना माननेवाले, सुविशुद्ध अति निर्मल चित्तयुक्त और जो शल्यरहित करे वो महाशयवाला पुरुष दर्शन करने के योग्य, वंदनीय और उत्तम ऐसे वो देवेन्द्र को भी पूजनीय है । कृतार्थी संसारिक सर्व चीज का अनादर करके जो उत्तर ऐसे विरति स्थान को धारण करता है । वो दर्शनीय-पूजनीय है ।
[१६१-१६३] (जिस साध्वीओ ने शल्य की आलोचना नहीं की वो किस तरह से संसार के कटु फल पाती है ये बताते है ।)...मैं आलोचना नहीं करूँगी, किस लिए करूँ ? या साध्वी थोड़ी आलोचना करे, कईं दोष न करे, साध्वीओ ने जो दोष देखे हो वो ही दोष कहे, मैं तो निवद्य-निष्पाप से - कहनेवाली हूँ, ज्ञानादिक आलम्बन के लिए दोष सेवन करना पड़े उसमें क्या आलोचना करना ? प्रमाद की क्षमापना माँग लेनेवाली श्रमणी, पाप करनेवाली श्रमणी, बल-शक्ति नहीं है ऐसी बातें करनेवाली श्रमणी, लोकविरुद्ध कथा करनेवाली श्रमणी,