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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
लावण्य देखकर और कान्ति, तेज, शोभा देखकर कोई मानव समान तितली अधम होकर क्षय न हो उसके लिए अनशन अपनाकर मैं श्रमणी पन में केवली बनूँगी । अब निश्चय से वायरा के अलावा किसी दुसरे का स्पर्श नहीं करूँगी ।
[१२६-१२९] अब छ काय जीव का आरम्भ-समारम्भ नहीं करूँगी श्रमणी-केवली बनूँगी । मेरे देह, कमर, स्तन, जाँघ, गुप्त स्थान के भीतर का हिस्सा, नाभि, जघनान्तर हिस्सा आदि सर्वांग ऐसे गोपन करूँगी कि वो जगह माँ को भी नहीं बताऊँगी । ऐसी भावना से साध्वी केवली बने । अनेक क्रोड़ भवान्तर मैंने किए, गर्भावास की परम्परा करते वक्त मैंने किसी तरह से पाप-कर्म का क्षय करनेवाला ज्ञान और चारित्रयुक्त सुन्दर मनुष्यता पाई है । अब पल-पल सर्व भावशल्य की आलोचना-निंदा करूँगी । दुसरी बार वैसे पाप न करने की भावना से प्रायश्चित् अनुष्ठान करूँगी ।
[१३०-१३२] जिसे करने से प्रायश्चित् हो वैसे मन, वचन, काया के कार्य, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पतिकाय और बीजकाय का समारम्भ, दो-तीन, चार-पाँच इन्द्रियवाले जीव का समारम्भ यानि हत्या नहीं करूँगी, झूठ नहीं बोलूंगी, धूल और भस्म भी न दिए हुए ग्रहण नहीं करूँगी, सपने में भी मन से मैथुन की प्रार्थना नहीं करूंगी, परिग्रह नहीं करूँगी जिससे मूल गुण उत्तर-गुण की स्खलना न हो ।
[१३३-१३६] मद, भय, कषाय, मन, वचन, काया समान तीन दंड, उन सबसे रहित होकर गुप्ति और समिति में रमण करूँगी और इन्द्रियजय करूँगी, अठारह हजार शीलांगोसे युक्त शरीरवाली बनूँगी, स्वाध्याय-ध्यान और योग में रमणता करूँगी । ऐसी श्रमणी केवली बनूँगी...तीन लोक का रक्षण करने में समर्थ स्तंभ समान धर्म तिर्थंकर ने जो लिंगचिह्न धारण किया है उसे धारण करनेवाली मैं शायद यंत्र में पीसकर मेरे शरीर के बीच में से दो खंड किए जाए, मुजे फाड़ या चीर दे ! भड़भड़ अग्नि में फेंका जाए, मस्तक छेदन किया जाए तो भी मैंने ग्रहण किए नियम-व्रत का भंग या शील और चारित्र का एक जन्म की खातिर भी मन से भी खंड़न नहीं करूँगा ऐसी श्रमणी होकर केवली बनूँगी ।
[१३७-१३९] गंधे, ऊँट, कूत्ते आदि जातिवाले भव में रागवाली होकर मैंने काफी भ्रमण किया । अनन्ता भव में और भवान्तर में न करने लायक कर्म किए । अब प्रवज्या में प्रवेश करके भी यदि वैसे दुष्ट कर्म करूँ तो फिर घोर-अंधकारवाली पाताल पृथ्वी में से मुझे नीकलने का अवकाश मिलना ही मुश्किल हो । ऐसा सुन्दर मानव जन्म राग दृष्टि से विषय में पसार किए जाए तो कईं दुःख का भाजन होता है ।
[१४०-१४४] मानव भव अनित्य है, पल में विनाश पाने के स्वभाववाला, कई पाप-दंड़ और दोष के मिश्रणवाला है । उसमें मैं समग्र तीन लोक जिसकी निंदा करे वैसे स्त्री बनकर उत्पन्न हुई, लेकिन फिर भी विघ्न और अंतराय रहित ऐसे धर्म को पाकर अब पापदोष से किसी भी तरह उस धर्म का विराधन नहीं करूँगी अब शृंगार, राग, विकारयुक्त,
अभिलाषा की चेष्टा नहीं करूँगी, धर्मोपदेशक को छोड़कर किसी भी पुरुष की ओर प्रशान्त नजर से भी नहीं देखूगी । उसके साथ आलाप संलाप भी नहीं करूँगी, न बता शके उस तरह का महापाप करके उससे उत्पन्न हुए शल्य की जिस प्रकार आलोचना दी होगी उस प्रकार पालन करूँगी । ऐसी भावना रखकर श्रमणी-केवली बनूँगी ।