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जीतकल्प-७९
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[७९] जीत व्यवहार से ज्यादा अन्य तप अच्छी तरह से करनेवाले को अन्य प्रायश्चित् देकर जीत व्यवहा प्रायश्चित् नहीं देना चाहिए । वैयावच्चकारी वैयावच्च करता हो तब थोड़ा प्रायश्चित् देना चाहिए ।
(अब छेद प्रायश्चित्त कहते है ।) [८०] तप गर्वित या तप में असमर्थ, तप की अश्रद्धा करनेवाले, तप से भी जो निग्रह नहीं कर शकते, अतिपरिणामी-अपवाद सेवी, अल्पसंगी इन सबको छेद प्रायश्चित् दो।
[८१-८२] ज्यादातर उत्तरगुण भंजक, बार-बार छेयावत्ति यानि छेद आवृत्ति करे, जो पासत्था, ओसन्न कुशील आदि हो, तो भी जो बार-बार संविन साधु की वैयावच्च करे, उत्कृष्ट तप भूमि यानि वीर प्रभु के शासन में छ मासी तप करे, जो अवशेष चारित्रवाला हो उसे पाँच, दश, पंद्रह साल से छ मास पर्यन्त या जितने पर्याय धारण करे उस तरह से छेद प्रायश्चित् दो।
(अब मूल प्रायश्चित्त बताते है ।) [८३] प्राणातिपात, पंचेन्द्रिय का घात, अरुचि या गर्व से मैथुनसेवन, उत्कृष्ट से मृषावाद-अदत्तादान या परिग्रह का सेवन करे इस तरह बार-बार करनेवाले को मूल प्रायश्चित्।
[८४] तप गर्विष्ठ, तप सेवन में असमर्थ, तप की अश्रद्धा करते, मूल-उत्तर गुण में दोष लगानेवाले या भंजक, दर्शन और चारित्र से पतीत दर्शन आदि कर्तव्य को छोड़नेवाला, ऐसा शैक्ष को भी (शैक्ष आदि सर्व को) मूल प्रायश्चित् आता है ।
[८५-८६] अति अवसन्न, गृहस्थ या अन्यतिर्थिक के भेद को हिंसा आदि कारण से सेवन करनेवाला, स्त्री गर्भ का आदान या विनाश करनेवाला ऐसा साधु-उसे जो तप बताया गया है ऐसा तप-छेद या मूल, अनवस्थाप्य या पारंचित प्रायश्चित् उसे अतिक्रमे तो पर्याय छेद, अनवस्थाप्य, पारंचित तप पूरा होने पर उसे मूल प्रायश्चित् में स्थापना करना । मूल की आपत्ति में बार-बार मूल प्रायश्चित् आता है ।।
(अब अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त बताते है ।) [८७] उत्कृष्ट से बार-बार द्वेषवाले, चित्त से चोरी करनेवाला, स्वपक्ष या परपक्ष को घोर परीणाम से और निरपेक्षपन से निष्कारण प्रहार करे तो अनवस्थाप्य प्रायश्चित् ।।
[८८] सर्व अपराध के लिए जहाँ-जहाँ काफी कुछ करके पारंचित प्रायश्चित् आता है वहाँ उपाध्याय को अनावस्थाप्य प्रायश्चित् देना, जहाँ काफी कुछ करके अनवस्थाप्य प्रायश्चित् आता हो वहाँ भी अनवस्थाप्य प्रायश्चित् दो ।
[८९] लिंग, क्षेत्र, काल और तप उस चार भेद से अनवस्थाप्य कहा है जो व्रत या लिंग-यानि वेश में स्थापना न कर शके, प्रवज्या के लिए अनुचित लगे उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित् दो । लिंग के दो भेद द्रव्य और भाव, द्रव्यलिंग यानि रजोहरण और भावलिंग यानि महाव्रत ।
[९०] स्वपक्ष-परपक्ष के घात में उद्यत ऐसे द्रव्य या भाव लिंगी को और ओसन्न आदि भावलिंग रहित को अनवस्थाप्य प्रायश्चित् । जिन-जिन क्षेत्र से दोष लगे उसे उसी क्षेत्र में अनवस्थाप्य प्रायश्चित् ।
[९१] जो जितने काल के लिए दोष में रहे उसे उतने काल के लिए अनवस्थाप्य । अनवस्थाप्य दोष के दो भेद आशातना और पाडिसेवणा-निषिद्ध कार्य करना वो | उसमें