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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
जा कर त्याग करे किन्तु रोके नहीं, फिर वापस विधिपूर्वक आकर अपने स्थान में कार्योत्सर्ग में स्थिर रहे । इस प्रकार वह साधु प्रथमा एक सप्ताहरूप आठवीं प्रतिमा का सूत्रानुसार पालन करता यावत् जिनाज्ञाधारी होता है ।
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इसी तरह नववीं - दुसरी एक सप्ताह की प्रतिमा होती है । विशेष यहि कि इस प्रतिमाधारी साधु को दंडासन, लंगडासन या उत्कुटुकासन में स्थित रहना चाहिए । दशवीं - तीसरी एक सप्ताह की प्रतिमा के आराधन काल में उसे गोदोहिकासन, वीरासन या आम्रकुब्जासन में स्थित रहना चाहिए ।
[ ५२] इसी तरह ग्यारहवीं - एक अहोरात्र की भिक्षु प्रतिमा के सम्बन्ध में जानना । विशेष यह कि निर्जल षष्ठभक्त करके अन्न-पान ग्रहण करना, गांव यावत् राजधानी के बाहर दोनों पांव सकुड़ कर और दोनो हाथ घुटने पर्यन्त लम्बे रखकर कार्योत्सर्ग करना । शेष पूर्ववत् यावत् जिनाज्ञानुसार पालन करनेवाला होता है ।
अब बारहवीं भिक्षु प्रतिमा बताते है-एक रात्रि की बारहवीं भिक्षु प्रतिमाधारक साधु काया के ममत्व रहित इत्यादि सब कथन पूर्ववत् जानना । विशेष यह कि निर्जल अष्टम भक्त करे, उसके बाद अन्न-पान ग्रहण करे । गांव यावत् राजधानी के बाहर जाकर शरीर को थोडा आगे झुकाकर एक पुद्गल पर दृष्टि रख के अनिमेष नेत्रो से निश्चल अंगयुक्त सर्व इन्द्रियो का गोपन करके दोनो पांव सकुडकर, दोनो हाथ घुटने तक लटकते रखे हुए कायोत्सर्ग करे, देवमनुज या तिर्यंच के उपसर्ग सहे, किन्तु इसे चलित या पतित होना न कल्पे । मलमूत्र की बाधा में पूर्वोक्त विधि का पालन करके कायोत्सर्ग में स्थिर हो जाए ।
एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा का सम्यक् पालन न करनेवाले साधु के लिए तीन स्थान अहितकर, अशुभ, असामर्थ्यकर, अकल्याणकर, एवं दुःखद भावियुक्त होता है; - उन्माद की प्राप्ति, लम्बे समय के लिए रोग की प्राप्ति, केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होना । तीन स्थान हितकर, शुभ, सामर्थ्यकर, कल्याणकर एवं सुखद भावियुक्त होते है- अवधि, मनः पर्यव एवं केवलज्ञान की उत्पत्ति । इस तरह यह एक रात्रि की - बारहवीं भिक्षु प्रतिमा को सूत्र - कल्प मार्ग तथा यथार्थरूप से सम्यक् प्रकार से स्पर्श, पालन, शोधन, पूरण, कीर्तन तथा आराधन करनेवाले जिनाज्ञा के आराधक होते है ।
इन बारह भिक्षुप्रतिमाओ को निश्चय से स्थविर भगवंतोने बताई है ।
दसा - ७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण दसा-८2- पर्युषणा
[५३] उसकाल उस समय में श्रमण भगवान महावीर की पांच घटनाएं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुई । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यवन, गर्भसंक्रमण, जन्म, दीक्षा तथा अनुत्तर अनंत अविनाशी निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति । भगवंत स्वाति नक्षत्र में परिनिर्वाण को प्राप्त हुए ।... यावत्...इस पर्युषणकल्प का पुनः पुनः उपदेश किया गया है । (यहाँ " यावत्" शब्द से च्यवन से निर्वाण तक का पुरा महावीर चरित्र समझ लेना चाहिए 1)