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दशाश्रुतस्कन्ध-७/४९
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मासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी साधु को विचरण करते हुए जहाँ सूर्यास्त हो जाए वहीं ही रहना चाहिए । वहां जल हो या स्थल, दुर्गम मार्ग हो निम्न मार्ग, पर्वत हो या विषम मार्ग, खड्डा हो या गुफा हो, रातभर वहीं ही रहना चाहिए, एक कदम भी आगे नहीं जा शकता । सुबह में प्रभात होने से सूर्य जाज्वल्यमान होने के बाद किसी भी दिशा में यतनापूर्वक गमन करना कल्पता है । मासिकी भिक्षुप्रतिमाधारक साधु को सचित्त पृथ्वी पर निद्रा लेना या लैटना न कल्पे, केवली भगवंत ने उसे कर्मबन्ध का कारण बताया है । वह साधु उस प्रकार निद्रा लेवे या लैटे तब अपने हाथ से भूमि का स्पर्श करता है तब जीवहिंसा होती है इस लिए उसे सूत्रोक्त विधि से निर्दोष स्थान में रहना या विचरण करना चाहिए ।
यदी वह साधु को मल-मूत्र की शंका होवे तब उसे रोकना नहीं चाहिए, किन्तु पहले प्रतिलेखीत भूमि पर त्याग करना चाहिए , वापस उसी उपाश्रय में आकर सूत्रोक्त विधि से निर्दोष स्थान में रहना चाहिए ।
मासिकी भिक्षु प्रतिमाधारक साधु को सचित्त रजवाले शरीर के साथ गृहस्थ या गृहसमुदाय में भोजन-पान के लिए जाना या वहाँ से निकलना न कल्पे । यदि उसे ज्ञात हो जाए कि शरीर पर सचित्त रज पसीने से अचित्त हो गई है, तब उसे वहां प्रवेश या निर्गमन करना कल्पे। उसको अचित्त ऐसे ठंडे या गर्म पानी से हाथ, पाँव, दाँत, आंख या मुख एक बार या बारबार धोना न कल्पे, सीर्फ मल-मूत्रादि से लिप्त शरीर या भोजन-पान से लिप्त हाथ या मुख धोना कल्पता है ।
मासिकी भिक्षु प्रतिमाधारी साधु के सामने अश्व, बैल, हाथी, भेंस, सिंह, वाघ, भेडीया, रीछ, चित्ता, तेदुंक, पराशर, कुत्ता, बिल्ली, साप, शशला, शीयाल, भुंड आदि हिंसक प्राणी आ जाए तब भयभीत होकर एक कदम भी पीछे खीसकना न कल्पे । इसी तरह ठंड लगे तब धूप में या गर्मी लगे तब छांव में जाना न कल्पे, किन्तु जहाँ जैसी ठंड या गर्मी हो वह उसे सहन करना चाहिए ।
मासिकी भिक्षु प्रतिमा को वह साधु सूत्र, आचार या मार्ग में जिस तरह कही हो उसी प्रकार से सम्यक्तया स्पर्श करना, पालन करना, शुद्धिपूर्वक किर्तन और आराधना करना चाहिए, तभी वह साधु जिनाज्ञा का पालक होता है ।
[५०] द्विमासिकी भिक्षु प्रतिमाधारक साधु हमेशां काया के ममत्व का त्याग किया हुआ...इत्यादि सर्व कथन प्रथम भिक्षु प्रतिमा समान जानना । विशेष यह कि भोजन-पानी की दो दत्ति ग्रहण करना कल्पे तथा दुसरी प्रतिमा का पालन दो मास तक करे...इसी प्रकार से भोजन-पानी की एक एक दत्ति और एक-एक मास की प्रतिमा का पालन सात दत्ति पर्यन्त समज लेना । अर्थात् तीसरी प्रतिमा-तीन दत्ति-तीन मास...इत्यादि सात पर्यन्त जानना ।
[५१] अब आठवीं भिक्षु प्रतिमा बताते है, प्रथम सात रात्रिदिन के आठवीं भिक्षु प्रतिमाधारक साधु सर्वदा काया के ममत्व रहित-यावत् उपसर्ग आदि को सहन करे वह सब प्रथम प्रतिमा समान जानना । उस साधु को निर्जल चोथ भक्त के बाद अन्न-पान लेना कल्पे, गांव यावत् राजधानी के बाहर उत्तासन, पार्थासन या निषधासन से कायोत्सर्ग करे, देव-मनुज या तिर्यंच सम्बन्धी जो कोई उपसर्ग उत्पन्न होवे तो उन उपसर्ग से उन साधु को ध्यान से चलित या पतित होना न कल्पे । यदी मलमूत्र की बाधा होवे तो पूर्व प्रतिलेखीत स्थान में