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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
निराश्रित शिष्य का संग्रह करना, गण में स्थापित करना, नवदीक्षित को आचार और गौचरी की विधि समजाना । साधर्मिक ग्लान साधु की यथाशक्ति वैयावच्च के लिए तत्पर रहना, साधर्मिक में आपस मे क्लेश- कलह होने पर राग-द्वेष रहितता से निष्पक्ष या माध्यस्थ भाव से सम्यक् व्यवहार का पालन करके उस कलह के क्षमापन और उपशमन के लिए तैयार रहे। वो ऐसा क्यों करे ? ऐसा करने से साधर्मिक कुछ बोलेंगे नहीं, झंझट पैदा नहीं होगा, कलह-कषाय न होंगे और फिर साधर्मिक संयम- संवर और समाधि में बहुलतावाले और अप्रमत्त होकर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरेंगे । यह भार प्रत्यारोहणता विनय है ।
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इस प्रकार उस स्थविर भगवंत ने निश्चय से आँठ तरह की गणिसंपदा बताई है उस प्रकार मैं ( तुम्हें ) कहता हूँ ।
दसा - ४ - का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण दसा - ५ - चित्तसमाधिस्थान
जिस तरह सांसारिक आत्मा को धन, वैभव, भौतिक चीज की प्राप्ति आदि होने से चित्त आनन्दमय होता है, उसी तरह मुमुक्षु आत्मा या साधुजन को आत्मगुण की अनुपम उपलब्धि से अनुपम चित्तसमाधि प्राप्त होती है । जिन चित्तसमाधि स्थान का इस 'दसा' में वर्णन किया है ।
[१६] हे आयुष्मान् ! वो निर्वाण प्राप्त भगवंत के मुख से मैंने ऐसा सुना है - इस ( जिन प्रवचन में ) निश्चय से स्थविर भगवंत ने दश चित्त समाधि स्थान बताए है । वो कौनदश चित्तसमाधि स्थान स्थविर भगवंत ने बताए है ? जो दश चित्त समाधि स्थान स्थविर भगवंत ने बताए है वो इस प्रकार है
उस काल और उस समय यानि चौथे आरे में भगवान महावीर स्वामी के विचरण के वक्त वाणिज्यग्राम नगर था । नगरवर्णन ( उववाई सूत्र के ) चंपानगरी तरह जानना । वो वाणिज्यग्राम नगर के बाहर दूतिपलाशक चैत्य था, चैत्यवर्णन ( उववाई सूत्र की तरह) जानना । (वहाँ) जितशत्रु राजा, उसकी धारिणी रानी उस तरह से सर्ब समोसरण ( उववाई सूत्र अनुसार ) जाना । यावत् पृथ्वी- शिलापट्टक पर वर्धमान स्वामी बिराजे, पर्षदा निकली और भगवान ने धर्म निरुपण किया । पर्षदा वापस लौटी |
[१७] हे आर्य ! इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर निर्ग्रन्थ (साधु) और निर्ग्रन्थी (साध्वी) को कहने लगे । हे आर्य ! इर्या भाषा - एषणा आदान भांड़ मात्र निक्षेपणा और उच्चार प्रस्नवण खेल सिंधाणक जल की परिष्ठापना, वो पाँच समितिवाले, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, आत्महितकर, आत्मयोगी, आत्मपराक्रमी, पाक्षिक पौषध (यानि पर्वतिथि को उपवास आदि व्रत से धर्म की पुष्टि समान पौषध) में समाधि प्राप्त और शुभ ध्यान करनेवाले निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पहले उत्पन्न न हुइ हो वैसी चित्त (प्रशस्त ) समाधि के दश स्थान उत्पन्न होते है । वो इस प्रकार
पहले कभी भी उत्पन्न न होनेवाली नीचे बताई गई दश वस्तु उद्भव हो जाए तो चित्त को समाधि प्राप्त होती है ।