________________
दशाश्रुतस्कन्ध - १/२
१४३
१५. सचित्त रजयुक्त हाथ-पाँववाले आदमी से भिक्षादि ग्रहण करना । १६. अनावश्यक जोर-जोर से बोलना, आवाज करना । १७. संघ या गण में भेद उत्पन्न करनेवाले वचन बोलना ।
१८. कलह यानि वाग्युद्ध या झगड़े करना |
१९. सूर्योदय से सूर्यास्त तक कुछ न कुछ खाते रहना ।
२०. निर्दोष भिक्षा आदि की खोज करने में सावधान न रहना । स्थविर भगवंत ने यह बीस अससाधि स्थान बताए है उस प्रकार मैं कहता हूँ ।
लेकिन यहाँ बीस की गिनती एक आधाररूप से रखी गई है । इस तरह के अन्य कई असमाधिस्थान हो शकते है । लेकिन उन सबका समावेश इस बीस की अंतर्गत् जानना - समजना जैसे कि ज्यादा शय्या-आसन रखना । तो वहाँ अधिक वस्त्र, पात्र, उपकरण वो सब दोष सामिल हो ऐसा समज लेना ।
चित्तसमाधि के लिए यह सब असमाधि स्थान का त्याग करना ।
दसा - २ - सबला
सबल का सामान्य अर्थ विशेष बलवान या भारी होता है । संयम के सामान्य दोष पहली दसा में बताए उसकी तुलना में बड़े या विशेष दोष का इस दसा में वर्णन है ।
[३] हे आयुष्यमान् ! वो निर्वाण प्राप्त भगवंत के स्वमुख से मैंने इस प्रकार सुना है । . यह आर्हत् प्रवचन में स्थविर भगवंत ने वाकईं एक्कीस सबल (दोष) प्ररूपे है । वो स्थविर भगवंत ने वाकई कौन-से एक्कीस शबल दोष बताए है ? स्थविर भगवंत ने निश्चय से जो इक्कीस - शबल दोष बताए हैं वो इस प्रकार है :
१. हस्त- कर्म करना, मैथुन सम्बन्धी विषयेच्छा को पोषने के लिए हाथ से शरीर के किसी अंग- उपांग आदि का संचालन आदि करना ।
२. मैथुन प्रतिसेवन करना ।
३. रात्रि भोजन करना । रात्रि को अशन, पान, खादिम या स्वादिम इस्तेमाल करना । ४. आधाकर्मिक-साधु के निमित्त से बने हुए आहार खाना ।
५. राजा निमित्त से बने अशन आदि आहार खाना ।
६. क्रित - खरीदे हुए, उधार लिए हुए, छिने हुए, आज्ञा बिना दिए गए या साधु के लिए सामने से लाकर दिया गया आहार खाना ।
७. बार-बार प्रत्याख्यान करके, प्रत्याख्यान हो वो ही अशन आदि लेना ।
८. छ मास के भीतर एक गण में से दुसरे गण में गमन करना ।
९. एक मास में तीन बार (जलाशय आदि करके) उदक लेप यानि सचित्त पानी का संस्पर्श करना ।
१०. एक मास में तीन बार माया स्थल ( छल-कपट करना ।
११. सागारिक (गृहस्थ, स्थानदाता या सज्जातर) के अशन आदि आहार खाना । १२-१५. जान बूझकर प्राणातिपात ( जीव का घात), मृषावाद (असत्यबोलना )... अदत्तादान (नहीं दीं गई चीज का ग्रहण), सचित्त पृथ्वी या सचित्त रज पर कार्योत्सर्ग,